Wednesday, October 19, 2011

Hindi Short Story Kitne Nark By M.Mubin


कहानी   कितने नरक  लेखक  एम मुबीन   


सवेरे जब वह घर से निकली थी तो बुशरा  बुखार में तप रही थी.
"अम्‍मी ! मुझे छोड़कर मत जाओ, अम्‍मी  आज स्कूल मत जाओ मुझे बहुत डर लग रहा है."
जब वह जाने की तैयारी कर रही थी तो बुशरा  की आंख भी खुल गई थी और वह उसे आज स्कूल न जाने के लिए जिद कर रही थी.
"नहीं बेटे!" प्यार से उसे समझाने के लिए जब उसने उसके माथे पर हाथ रखा तो कांप उठी. बुशरा  के माथे बुखार से तप रही थी.
"अम्‍मी  से इस तरह की ज़िद नहीं करते." यह कहते हुए उसकी भाषा लड़खड़ा गई थी. "आज अम्‍मी  का स्कूल जाना बेहद जरूरी है. कल चाहे रोक लेना. तुम कहो तो कल हम आठ दिनों के लिए स्कूल नहीं जायेंगे तुम्हारे पास ही रहेंगे. आज हमें जाने दो. "
"अम्‍मी  रुक जाओ नां! मुझे अच्छा नहीं लग रहा है." बुशरा  रोने लगी थी.
"नहीं रोते बेटे!" बुशरा  को रोता देख कर उसकी आंखों में भी आंसू आ गए थे. परंतु बड़ी मुश्किल से उसने अपने आंसुओं को रोका था और भुराई हुई आवाज़ पर काबू पाने की कोशिश की थी. "हम आज जल्दी घर आ जायेंगे फिर तुम्हारे अब्बा तो तुम्हारे पास ही हैं नां बेटा. डरने की कोई बात नहीं है. "
दूसरे कमरे में तारिक़ और ावफ बेखबर सो रहे थे. थोड़ी देर सिसककते रहने के बाद बुशरा  की भी आंख लग गई थी. उसने अपना परस कंधे पर लटका और जाकर धीरे से तारिक़ को हिलाने लगी.
"आं! क्या बात है?" तारिक़ ने आंख खोल दी.
"मैं जा रही हूँ." वह बोली. "बुशरा  को सख्त बुखार है उसे डॉक्टर के पास ले जाना. नौकरानी से कह देना कि उसका अच्छी तरह ध्यान रखे. यदि संभव हो तो आज आप छुट्टी कर लें. वैसे मैं आज जल्दी आने की कोशिश करूंगी परंतु कह नहीं सकती कि यह संभव हो सकेगा भी या नहीं क्योंकि आज इन्‍सपेकशन  है. यदि इन्‍सपेकशन  न होता तो आज जाती ही नहीं. "
"ठीक है." तारिक़ ने उठते हुए जमाही ली. वह जब घर से बाहर आई तो चारों ओर गहरा अंधेरा था. सर्दियों के दिनों में सात भी बज जाते हैं तो अंधेरा ही छाया रहता है दिन नहीं निकलता और उस समय तो केवल साढ़े पांच ही बजे थे. पूरी गली सुनसान थी. रास्ते पर इक्का दुक्का लोग आ जा रहे थे. ऐसे आलम में किसी औरत के घर से निकलने की कल्पना भी नहीं किया जा सकता है. वह प्रतिदिन उसी समय अकेली उस गली से गुज़र कर रिक्शा स्टैंड तक जाती जो लोग सवेरे जल्दी जागने के आदी थे. उन्हें पता था कि वह उस समय घर से स्कूल जाने के लिए निकलती है. ननवा लोग उससे दो बातें कर लिया करते थे.
"बेटी स्कूल जा रही हो."
"हाँ बाबा." वह उत्तर देती.
"भाबी अकेली अँधेरे में प्रतिदिन  इतने सवेरे जाती हो तुम्हें डर नहीं लगता?"
"अब तो आदत हो गई है." वह मुस्कुरा कर कहती.
सभी ननवा और अच्छे नहीं होते. कभी कभी कोई अजनबी और बदमाश भी मिल जाता है. अकेले में उस समय किसी अजनबी औरत को देख कर वह जो कुछ कर सकता है वह करने से नहीं चौकता था. कभी कोई भद्दा सा वाक्यांश मुंह से निकाल देता . कभी कोई नागवार बात कह देता. कोई तो जसारत कर धक्का देकर आगे बढ़ जाता और अपनी किसी मानसिक  इच्छा की संतोष कर लेता. ऐसी स्थिति में इस प्रक्रिया सिवाय ख़ामोशी और कुछ नहीं होता था. न तो वह से उलझ सकती थी न शोर मचा कर अपनी मदद के लिए किसी को बुला सकती थी. उलझी तो नुकसान उसी का होता. अकेली औरत जो ठहरे. किसी को मदद के लिए बुलाती तो संभव नहीं था कि कोई उसकी मदद को आता. इतने सवेरे कोई अपनी लाखों रुपए की मीठी नींद खराब करता है? अगर कोई आए भी तो बदमाश से तो उसे मुक्ति मिल जाती परंतु मदद करने के वाक्यों से शायद जीवन भर मुक्ति  नहीं मिलती.
"इतनी रात गए अकेली घर से निकली हो. शरीफ़ औरतों के क्या यही चाल चलन हैं?"
"यदि इज़्ज़त का उतना ही पास है तो अकेली इतने सवेरे घर से क्यों निकलती है. घर में रहा करो. छोड़ दो यह नौकरी." गरज वह ऐसी बातों से कतरा के लिए अपने साथ हुए जा रहे बे जा व्यवहार को अनदेखा कर आगे बढ़ जाती थी. रिक्शा स्टैंड से एस टी के लिए उसे पाँच मिनट में रिक्शा मिल जाता था. कभी कभी तो उसे रिक्शा तैयार मिल जाता था कभी दो चार मिनट रिक्शा का इंतजार करना पड़ता था. कुछ रिक्शा वालों को पता था वह उस समय वहां से एस. टी स्टैंड जाने के लिए निकलती है तो वह उसके इंतजार में वहाँ पहुँच जाते थे. इसमें भी उन लोगों की नियत के दो पहलू होते थे. कुछ शरीफ लोग अपनी रोज़ी धंधे के लिए की सीट पाने के लिएवहाँ पहुँचते थे. कुछ बदमाश मानसिकता वाले केवल स्वाद के लिए वहाँ पहुँचते थे कि एक अकेली अकेले खूबसूरत जवान लड़की को अकेले रिक्शा में एस. टी स्टैंड तक पहुँचाने का अवसर मिलेगा. उससे कुछ ऐसी भी बातें हो सकती हैं जो उनके लिए मानसिक  स्वाद का कारण हूँ. ऐसी हालत में वह ख़ामोश रहकर यात्रा को प्राथमिकता देती थी.
उनका कोई उत्‍तर  नहीं देती थी या यदि देती भी तो ऐसा उत्‍तर  देती कि उसकी सारी उम्मीदों और इरादों पर पानी फिर जाए. ऐसी स्थिति में जो दुर्घटना संभव था वह एक बार इसके साथ हो चुका था. सन्नाटे और अंधेरे का लाभ उठाकर एक रिक्शा वाले ने उसे गलत रास्ते पर ले जाना चाहा. उसने चीख कर उसे रोका जब उसने नहीं सुना तो चलते रिक्शे से कूद गई. उसे मामूली चोटें आईं परंतु उसकी सौभाग्य था कि सामने पुलिस खड़ी थी और उसे रिक्शा से कूदती देखा तो दौड़कर उसके पास पहुंचे.
"क्या बात है मैडम, क्या आप रिक्शा से गिर गईं?"
"नहीं! वह रिक्शा वाला मुझे अकेली देख कर गलत रास्ते पर ले जा रहा था."
"ऐसी बात है?" यह सुनते ही दो पुलिस वाले गाड़ी लेकर भागे. थोड़ी देर बाद ही वह रिक्शा को मारते हुए उसके पास ले आए उन्होंने शायद उसे बुरी तरह मारा था. उसके माथे से खून बह रहा था .
"बहन जी मुझे क्षमा कर दो! अब जीवन भर ऐसी गलती नहीं करूंगा." वह उसके पैरों पर गिर कर गिड़गिड़ाते लगा तो उसने पुलिस वालों से कहा कि उसके विरूध  कोई कार्रवाई न करे उसे छोड़ दे. इस घटना को तो उसने अपने तक ही सीमित रखा था परंतु रिक्शा वालों में शायद इस घटना का प्रचार हो गई थी क्योंकि उसके बाद उसके साथ ऐसा कोई घटना पेश नहीं आया था.
इस घटना से वह स्‍वंय  बहुत डर गई थी. उसने सोचा था कि वह अपना रूपांतरण दोपहर की नलं में करा ले जाएगा. इसके लिए उसने काफी हाथ पैर भी मारे थे. परंतु बात नहीं बन सकी थी. रूपांतरण करने वाले इतनी कीमत मांग रहे थे जितनी देना उसकी बिसात के बाहर था. वैसे दोपहर की नलं उसके और उसके घर वालों के पक्ष में भी उचित नहीं थी. दोपहर की नलं करने के लिए उसे सवेरे नौ दो बजे घर से निकलना होगा और वापसी शाम सात आठ दस बजे तक संभव ही नहीं हो सकेगी. ऐसी स्थिति में घर, ावफ और बुशरा  का कौन ध्यान रखेगा. तारिक़ ड्यूटी देखेगा या घर और बच्चों को?
इसलिए उसने दूसरी नलं लेने का इरादा बदल दिया था. सवेरे की नलं के लिए उसे साढ़े पांच बजे के समीप  घर से निकलना पड़ता था. इस तरह से वह ठीक वक्त पर स्कूल पहुंच भी जाती थी. स्कूल से दो ढाई बजे के समीप  वापस घर आ जाती थी. तारिक़ दस ग्यारह बजे तक घर में ही रहता था उसके बाद नौकरानी आ जाती उसके आने तक नौकरानी घर और बच्चे संभाली थी. साढ़े पांच बजे घर छोड़ने के लिए उसे चार बजे जागने पड़ता था. जागने के वह अपने और बच्चों के लिए सवेरे का नाश्ता और कभी कभी दोपहर का खाना बनाती थी हाँ! कभी देर हो जाती तो यह जिम्मेदारी नौकरानी पर डालनी पड़ती. सारे काम करके वह ठीक वक्त पर घर से निकल जाती थी. निकलते समय वह हल्का सा नाश्ता कर लेती थी परंतु स्कूल में उसे भूख लग ही जाती थी. अवकाश में उसे हल्का नाश्ता करना ज़रूरी हो जाता था. इसके बाद वह घर आकर ही खाना खाती थी.
बस स्टैंड पहुंचने के बाद उसे पुणे छह बजे बस मिल जाती थी. यह बस भी समझमह थी. कभी बिल्कुल खाली होती थी तो कभी इतनी भीड़ कि पैर रखने के लिए भी मुश्किल से जगह मिलती थी. बस खाली हो या भीड़ उसे उसी से यात्रा करना आवश्यक होता था. अगर वह बस छूट जाए तो निश्चित समय पर स्कूल लगना ना मुमकिन था. क्योंकि 20 किलोमीटर का पल सरा् सा यात्रा उसी बस द्वारा निर्धारित समय में तय करना संभव था. वरना भिवंडी थाना यात्रा? भगवान की शरण. भिवंडी से निकले लोग नासिक पहुँच जाये परंतु थाना जाने के लिए निकले रास्ते में ही फंसे रहे. खराब रास्ता, आवागमन, यात्रियों, बस कंडकटर, चालक के झगड़े. सुबह के समय आवागमन कम होती थी भीड़ कम होने की वजह से कंडकटर का मूड भी अच्छा होता था. इसलिए यह यात्रा निश्चित समय में पूरा हो जाता था. इसके बाद थाने से आधे घंटे का लोकल ट्रेन यात्रा. उसमें बहुत कम परेशानी होती थी. दो चार मिनट में कोई तेज या धीमी लोकल मिल जाती थी. सवेरे का समय होने के कारण लोकल में भीड़ नहीं होती थी. कभी सामान्य डिब्बे में जगह मिल जाती थी तो कभी लीडीज़ डिब्बे में. हाँ! किसी मजबूरी के तहत भीड़ होने की वजह से खड़े होकर यात्रा करना भी भारी नहीं पड़ता था.
लीडीज़ डिब्बे में खड़े होकर यात्रा करने में तो कोई समस्या पेश नहीं आती थी परंतु जनरल डिब्बे में खड़े होकर यात्रा करना औरत के लिए प्रकोप  से कम नहीं है. धक्के शरीर की हड्डी पसलियां एक कर देते हैं. और एक औरत को तो कुछ अधिक ही धक्के लगते हैं और विशेष रूप से नाजुक स्थानों पर. ऐसा लगता है जैसे कई गध अपनी नवकीली चौनचों से उसका मांस नोच रहे हैं. कभी राहत भरा आराम तो कभी प्रकोप  भरा यह सफर तय करने के बाद कुछ क़दमों का पैदल यात्रा और उसके बाद स्कूल. कैसी अजीब बात थी.
तीस चालीस किलोमीटर से आती थी. परंतु कभी कभी वे सबसे पहले स्कूल आने वाली एकमात्र शिक्षक होती थी. या पहले नहीं भी आती थी तो लेट कभी नहीं होती थी. मगर स्थानीय शिक्षक हमेशा देर से आते थे. इसके बाअस्तित्‍व  अगर किसी दिन मजबूरी से एक आध घंटा देर से स्कूल पहुँचती तो लोग नाक भौं चढ़ाने. और देरी से आने के लिए उसे उत्‍तर  देना पड़ता था या उसकी उपस्थिति में लेट मार्क किया जाता था. वह उसके विरोध भी करती तो उसका विरोध बेअसर रहता. क्योंकि स्कूल में कोई लॉबी नहीं था. लॉबी न होने की वजह से उसके विरोध में न तो शक्ति थी और न प्रभाव. जिनकी लॉबी मजबूत थी वह सारे कानून को ताक पर रखकर नौकरी करते थे.
स्कूल से वह साढ़े बारह बजे के समीप  निकलती थी. थोड़ी दूर पैदल चलने के बाद रेलवे स्टेशन और स्थानीय से थाना. और थाना आने के बाद भिवंडी  तक पीड़ा नअक यात्रा.
जब भी वह थाना भिवंडी  के बीच यात्रा करती थी उसे सरा् मसतकीम की याद आती थी. दिन महशर के बाद बन्दों को जिस बाल से बारीक पुल से यात्रा करना होगा जिसके नीचे नरक की आग महक रही होगी. वह यात्रा कितना यातना नाक होगा इसका तो माना जा सकता था. परंतु इस यात्रा को तय करते हुए जो यातना सहन  करनी पड़ती थी उसकी कोई सीमा नहीं थी.
पहले बस की लाइन में घंटों खड़े रहना धक्के खाना. प्रकार के लोगों की नापाक नजरों का निशाना बनना. फिर दानसतगी या नादानसतगी से लगाए उनके हवस नाक धक्कों को अपने शरीर पर झेलना. बस आई और जगह मिल गई तो गनीमत वरना फिर भीड़ में खड़े खड़े यात्रा. भीड़ में घुटता दम और शरीर का निकलता कचूमर. इस यात्रा में यात्रा करने वाले यात्री भी कितने बे हस होते हैं.
कोई खड़ा है इससे उन्हें कुछ लेना देना नहीं होता है. उन्हें जगह मिल गई उनके लिए बस यही काफी है. कोई भूल कर भी यह नहीं सोचे कि कोई औरत खड़ी है. उसे बैठने के लिए जगह देनी चाहिए. अगर कोई इतनी फ़्रापदिली करेगा तो फिर उस फ़्रापदिली मूल्य भी प्राप्त करने की कोशिश करेगा. उस फ़्रापदिली की यातना नाक भुगतान करने से बेहतर तो है धक्के सहते हुए शरीर के बीच घट कर खड़े खड़े यात्रा करें. महिला थकी हुई है, गर्भवती या बीमार है कोई इस बारे में नहीं सोचता. उसकी इन स्थितियों पर दया खा कर कोई उसे जगह देने की कोशिश नहीं करता. यदि जगह देता है तो उससे मूल्य प्राप्त करने की नियत है. चाहे वह किसी भी हालत में हो . फिर ऐसी हालत में यह यात्रा और लंबी हो जाता है.
किसी दिन कोई एक्सटेंडिड हो गया जिसकी वजह से यातायात जाम हो गई और फिर सामान्य आने में घंटों लग गए और एक आधे घंटे की यात्रा दो तीन घंटे शामिल हो गया. घटना नहीं भी हुआ तो बेतरतीब से घुसने वाले वाहनों के कारण से यातायात जाम हो गई.
मामूली मामूली बातें कभी बड़ी बड़ी वजह बन कर कई घंटे बरबाद कर देती हैं. जब वह घर पहुँचती है तो भूख चमकी हुई है. सारा शरीर थकान से टूट रहा है आंखों में नींद समाई होती है. उसे कुछ वझाई नहीं देता है वह क्या करे खाना खाये, आराम करे या सोए उसके आते ही बच्चे उसे घेर लेते हैं वह उससे लिपट कर इतनी देर की दूरी के एहसास को कम करना चाहते हैं. और थकान की वजह से बच्चों के शरीर की निकटता भी उसे बिजली का तार महसूस होती है. बड़ी मुश्किल से पलंग पर लेट कर थोड़ी देर सस्ता कर फिर अपने कामों में लग जाती है. यदि नौकरानी ने खाना नहीं बनाया तो उसे खाना बनाना पड़ता है. इस बीच तारिक़ भी आ जाता है और फिर सब मिल कर खाना खाने बैठ जाते हैं. कभी वह जल्दी आ गई तो सब साथ ही खाना खा लेते हैं. कभी देर हो गई तो निर्धारित समय पर तारिक़ और बच्चे खाना खा लेते हैं. उसे अकेले ही खाना पड़ता है. खाना खाने के बाद एक दो घंटे की नींद का सामान्य है. एक दो घंटे सोने के बाद उसकी सारी थकान दूर हो जाती है. और तरोताज़ा होकर घर के कामों में लग जाती है.
घर के छोटे मोटे काम करना, रात का खाना बनाना, शाम बाज़ार जाकर शॉपिंग करना आदि आदि. परंतु जरूरी नहीं कि प्रतिदिन  जीवन का यह सामान्य है. कभी कभी सामान्य में मामूली बदलाव भी बड़ी यातना नाक साबित होती है. आज बुशरा  को सख्त बुखार आ गया. शाम से ही उसे हल्का हल्का बुखार था. आधी रात के बाद बुखार की तीव्रता बढ़ गई और अब वह तप रही है. उसका स्कूल जाना भी ज़रूरी है. इन्‍सपेकशन  जो है. एक महीने अगर वह स्कूल न तो चल सकता है परंतु इन्‍सपेकशन  के दिन न जाए यह कैसे संभव है?
एक मुहावरा है उस दिन तो बिस्तर मरग से उठ कर भी स्कूल आना जरूरी है. वह कई सालों से कोशिश कर रही है कि उसे भिवंडी का कोई टीचर मिल जाए जो उसके साथ मयूचौल ले. और प्रतिदिन  इस पल सरा् यात्रा से मुक्ति  मिल जाए. चाहे उसमें उसे वेतन में नुकसान सहना पड़े. परंतु आज तक यह संभव नहीं हो सका है. उस तरह कई शिक्षक मुंबई पढ़ाने जाते हैं. और मुंबई से शिक्षक पढ़ाने के लिए भिवंडी  आते हैं.
सब समस्याओं एक हैं. परंतु कोई भी उसे ऐसा हम विचार नहीं मिलता जो यातना से दोनों को उद्धार. घर बाल बच्चे पति भिवंडी  हैं नौकरी के लिए मुंबई जाना पड़ता है. जब तक विवाह  नहीं हुई थी कोई समस्या नहीं था यहयात्रा किसी तकलीफ का कारण नहीं था. हर दिन एक नया अनुभव और एक नया ाीडोनचर होता था. विवाह  के बाद भी कोई समस्या नहीं पैदा हुआ. केवल जल्दी घर पहुँच कर पति को देखने की इच्छा मन में ाँगड़ाईाँ लेती रहती थी. परंतु के बाद बच्चे आ गए और समस्याओं बढ़ते गए.
घर में कोई नहीं था जिनके भरोसे बच्चों को छोड़ कर संतुष्ट हो कर ड्यूटी पर जा सके. सब कुछ नौकरों के सहारे और उनके भरोसे करना पड़ता था पता नहीं नौकर बच्चों का अच्छी तरह ध्यान रखते भी होंगे या नहीं. बस यही प्रशन   हर क्षण मन को कचौकता रहता था. कई बार तो मन में आया नौकरी छोड़ दे. मियाँ बीवी में सलाह भी हुआ परंतु यह तय भावनात्मक फैसला साबित हुआ. जब सामने सच्चाई की प्रवेश दीवारें आईं तो यह फैसला उससे टकरा कर पाश पाश हो गया . अभी अभी नया घर लिया था.
तारिक़ की आधी से अधिक वेतन फ्लैट के लिए ऋण के सप्ताह भुगतान में खर्च हो जाती थी. अल्प आय के सहारे भिवंडी  जैसे महँगे शहर में जिंदा रहना भी हर चीज़ के लिए तरस तरस कर दिन मरना था. इसलिए नौकरी भी आवश्यक थी. और नौकरी के लिए प्रतिदिन  यातना यात्रा भी जरूरी था. बच्चे बुखार में तप रहे थे परंतु फिर भी स्कूल जाना जरूरी. घर पहुंचने की जल्दी परंतु ऐसे हालात पैदा हो गए कि सामान्य से दो चार घंटे लेट लगना पड़े.
प्रतिदिन  समय पर स्कूल जाना हो जाता था. एकाध बार बस या ट्रेन देर से चलने के कारण स्कूल पहुंचने में देरी हो गई और उसी दिन किसी अधिकारी ने स्कूल का दौरा किया. और हाथ में देरी से स्कूल आने का मीमो आ गया. रक्षा में बैठी तो कोई बुशरा  की बीमारी के साथ इन्‍सपेकशन  होने की वजह से जल्दी या समय पर स्कूल पहुंचने का विचार था. समय पर बस भी मिल गई और बैठने के लिए जगह. परंतु रास्ते में बस ड्राइवर एक ट्रक वाले से उलझ गया . उनके झगड़े में पंद्रह मिनट देर हो गई. थाने स्टेशन पर आई तो तेज लोकल निकल चुकी थी. धीमी ट्रेन दस मिनट देर से आई. स्कूल पहुंची तो पूरे आधे घंटे देरी हो गई थी.
शिक्षा अधिकारी आ चुका था और इन्‍सपेकशन  शुरू हो चुका था. "श्रीमती मोमिन! आपको शर्म आनी चाहिए. आप आधा घंटा लेट स्कूल आई हैं. उससे तो यही लगता है आप इन्‍सपेकशन  के दिन लेट आई हैं तो प्रतिदिन  तो कई घंटे लेट आती हूंगी. आप इस तरह लेट स्कूल आकर बच्चों का कितना नुकसान कर रही हैं आपको एहसास है? सरकार आपको वेतन क्यों देता है? "अधिकारी का लेक्चर सुनना पड़ा था. और अपनी विवश्‍ता  पर उसकी आंखों में आंसू आ गए. वह क्या उत्‍तर  दे उस की कुछ समझ में नहीं आ रहा था. दिन भर इन्‍सपेकशन  चलता रहा परंतु इसका कोई बुशरा  में उलझा रहा. पता नहीं कैसी होगी? बारह बजे के समीप  एक ननवा ने आकर खबर दी कि भिवंडी  से तारिक़ का फोन आया है कह रहे हैं कि तुम तुरंत आ जाओ बुशरा  की तबीयत बहुत खराब है.
उसने तारिक़ को ननवा संख्या दे रखा था ताकि यदि उसे कोई ज़रूरी संदेश देना हो तो वहां संपर्क करे. वे भी उसे तुरंत सूचित कर देते थे. वह तुरंत स्कूल से निकल गई. स्टेशन आकर लोकल में बैठी और स्थानीय चल दी. परंतु थोड़ी दूर जाकर रुक गई.
किसी नेता पर हमला हुआ था. उसके विरोध कर लोगों ने ट्रेन सेवा बंद कर दी थी विरोध करने वालों को पुलिस को पटरियों से हटाने में दो घंटे लग गए उसके बाद ट्रेन चली. थाने से स्पेशल रिक्शा कर वह घर आई तो पता चला बुशरा  को अस्पताल में भर्ती कराया गया. अस्पताल में पलंग पे बुशरा  बेहोश लेटी थी उसके हाथ में सरनज लगी हुई थी उससे कतरा कतरा दवाई टपक कर नली द्वारा उसके शरीर में जा रही थी.
"बुखार बहुत बढ़ गया था इसलिए ऐडमट करना पड़ा." तारिक़ ने बताया तो वह अचानक फूट फूट कर रोने लगी. यह सोचकर कि मरने के बाद तो इंसान केवल एक पल सरा् से गुजरना होगा. परंतु जीते जी इसे कितने पल सरा् से गुजरना पड़ता है?

 
...
अप्रकाशित
मौलिक
------------------------समाप्‍त--------------------------------पता
एम मुबीन
303 क्‍लासिक प्‍लाजा़, तीन बत्‍ती
भिवंडी 421 302
जि ठाणे महा
मोबाईल  09322338918

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