Wednesday, October 19, 2011

Hindi Short Story Sherni By M.Mubin


कहानी     शेरनी   लेखक  एम मुबीन   


ख वह घर से निकली तो नौ बज रहे थे. तेज लोकल ट्रेन तो मिलने से रही, धीमी लोकल से ही जाना पड़ेगा. वह भी समय पर मिल गई तो ठीक. वरना यह तय है कि आज फिर वह देरी से ऑफिस पहुँचेगी. और लेट कार्यालय आने का मतलब? इस विचार से ही उसके माथे पर बल पड गए और भवें तन गईं. आँखों के सामने बॉस का चेहरा घूम गया. और कानों में उसकी गरजदार आवाज सुनाई दी.
"श्रीमती महातरे! आप आज फिर लेट आई हैं. मेरे बार बार ताकीद करने पर भी रोजाना लेट आती हैं. आपकी इस डुट्टाई पर मुझे गुस्सा आता है. आपको शर्म आनी चाहिए. बार बार ताकीद करने पर भी आप वही हरकत करती हैं . आज के बाद मैं आफ साथ कोई रियायत नहीं करूंगा.
कोई उससे तेजी से टकराया और उसके विचारों का क्रम टूट गया था. वह सड़क पर थी. भीड़ और यातायात भरी सडक उसे पार करनी थी. इसलिए होश में रहना बहुत जरूरी था. गायब मस्तिष्‍क रहते हुए सड़क पार करने की कोशिश में कोई भी हादसा हो सकता था. जो उससे टकराया वह तो कहीं दूर चला गया था परंतु इसके टकराने से उस पर गुस्सा नहीं आया था.
अच्छा हुआ वह उससे टकरा गई. उसके विचारों का सिलसिला तो टूट गया और वह होश की दुनिया में वापस आ गई. वरना तनाव में अपने इन्हीं विचारों में खोई रहती और बेख़याली में सड़क पार करने की कोशिश में किसी दुर्घटना का शिकार हो जाती. उसने चारों ओर चौकन्ना होकर देखा. सड़क के दोनों ओर गाडयाँ इतनी दूर थी कि वह आसानी से सडक पार कर सकती थी.
सिग्नल तक रुकने का अर्थ था स्वयं को दो चार मिनट लेट करना. विचार आते ही उसने सडक पार करने का फैसला कर लिया और दौडती हुई सडक की दूसरी ओर पहुँच गई. दोनों तरफ से आने वाली गाडयाँ उसके काफी समीप हो गई थीं. ज़रा सी देरी या सस्ती किसी दुर्घटना का कारण बन सकती थी. परंतु उसने अपने आप को पूरी तरह इसके लिए तैयार कर लिया था. कोई दुर्घटना हो इस बात का पूरा ध्यान रखा था. सड़क पार कर वह तंग सी गली में प्रवेश किया. जिसको पार करने के बाद रेलवे स्टेशन की सीमा आरम्भ होती थी. गली में कदम रखते ही उसके हृदय की धडकनें तेज हो गईं. साँसें फूलने लगीं और माथे पर पसीने की बूँदें उभर आईं. उसने हाथ में पकड़े रूमाल से माथे पर आई पसीने की बूँदें साफ कीं और फूली हुई साँसों पर नियंत्रण पाने की कोशिश करने लगी. परन्तु उसे पता था न फूली हुई साँसों पर नियन्त्रण पा सकेगी ना दिल की धड़कने की गति सामान्य कर सकेगी.
मस्तिष्क में खोटा का विचार जो आ गया था. उसे पूरा विश्वास था. गली के बीच उस पान की दुकान के पास वह कुर्सी लगाकर बैठा होगा. उसे आता देख भद्दे अंदाज में वाक्य मुस्कुराए है और उस पर कोई गंदा वाक्यांश किसे है. खोटा की यह दिनचर्या थी. सुबह शाम वह उसी जगह उसकी राह देखता था. उसे पता था सवेरे वह कब ऑफिस  जाती है और शाम को ऑफिस  से घर लौटती है. उसके आने जाने का रास्ता वही है. रेलवे स्टेशन जाने और रेलवे स्टेशन से घर जाने का कोई दूसरा रास्ता नहीं है. एक है भी तो वह इतना लम्बा रास्ता है कि उस रास्ते से जाने की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है. इसलिए खोटा उसी रास्ते पर बैठा उसकी राह देखता रहता है और उसे देखते ही कोई भद्दा सा वाक्य हवा में उछाला था.
"हाय डारलनग! बहुत अच्छी लग रही हो. यह कार्यालय, नौकरी वोकरी छोड़ो. मुझे खुश कर दिया करो. हर महीने इतने पैसे दिया करूँगा जो नौकरी से चार महिनों में भी नहीं मिलते होंगे. आओ आज किसी होटल में चलते हैं. चलती आज शेरेटन होटल में पहले ही से अपना एक कमरा बुक है. नौकरी करते हुए जन्दगी भर शेरेटन होटल का दरवाजा भी नहीं देख पाओगी. आज हमारे साथ उसमें दिन गुजार कर देख लो. "
खोटा के हर वाक्य के साथ उसे अनुभव होता एक भाला आकर उसके मन में चुभ गया है. हृदय की धडकनें तेज हो जाती थीं और आँखों के सामने अंधेरा छाने लगता था. तेज चलने की कोशिश में कदम लड़खड़ाने लगते थे.परंतु वह जान तोड़ कोशिश कर के तेज क़दमों से खोटा की नज़रों से दूर हो जाने की कोशिश करती थी.
खोटा उस क्षेत्र का माना हुआ गुण्डा था. उससे क्षेत्र का बच्चा बच्चा उससे परिचित था. शराब, जुए, वेश्याओं के अड्डे चलाना, सप्ताह वसूली, सुपारी वसूली, अपहरण, हत्या और मारपीट आदि. लिए कि ऐसा कोई काम नहीं था जो वह नहीं करता था या इस तरह के मामलों में शामिल नहीं था. वह जो चाहता था कर जाता था कभी पुलिस की पकड़ में नहीं आता था. अगर किसी मामले में फँस भी गया तो उसके प्रभाव के कारण पुलिस को उसे दोदिनों में ही छोडना पडता था.
उस खोटा का दिल उस पर आ गया था. उसे माया महातरे पर एक छोटे से निजी कार्यालय में काम करने वाली एक बच्चे की माँ पर पहले तो खोटा उसे सिर्फ घूरा करता था. फिर जब उसके आने जाने का समय और रास्ता मालूम हो गया तो वह प्रतिदिन उसे उस रास्ते पर मिलने लगा.
रोज उसे देखकर मुस्कराता और उस पर गंदे वाक्यांश की बारिश करने लगता. खोटा की हरकतों से वह आतंकित सी हो गई थी. उसे यह अनुमान तो हो गया था खोटा के मन में क्या है. और उसे पूरा विश्वास था कि उसके मन में है खोटा उसे एक दिन पूरा करके ही रहेगा. इस कल्पना से ही वह काँप उठती थी. यदि खोटा ने अपने मन की मुराद पूरी कर डाली, या पूरी करने की कोशिश की तो? इस कल्पना से ही उसकी जान निकल जाती थी.
"नहीं! नहीं! ऐसा नहीं हो सकता. यदि खोटा ने मेरे साथ ऐसा कुछ किया तो मैं किसी को मुँह दिखाने के योग्य नहीं रहूँगी. में जीवित नहीं रह पैर है." उसे यह पता था कि वह इतनी सुन्दर है कि खोटा जैसे लोग उसे देखकर बहक सकते हैं. दूसरे हजार लोग उसे देखकर ऐसा कोई विचार अपने मन में लाते तो उसे कोई परवाह नहीं थी क्योंकि उसे विश्वास था कि वह कभी इस विचार को पूरा करने का साहस नहीं कर पाएंगे.
परन्तु खोटा? हे भगवान! जो सोच ले दुनिया की कोई भी शक्ति उसे अपने सोचे हुए काम को रोकने की कोशिश नहीं कर सकती थी. वह आते जाते खोटा की कल्पना से आतंकित रहती थी. और उस दिन तो खोटा ने सीमा कर दी. ना केवल उसका रास्ता रोक कर खड़ा हो गया था बल्कि उसकी कलाई भी पकड ली.
"बहुत ाकड़ती हो. अपने आप को क्या समझती हो. तुम्हें पता नहीं तुम्हारा पाला खोटा से पड़ा है. ऐसी अकड निकालूँगा कि जन्दगी भर याद रखो है. सारी अकड़ निकल जाएगी."
"छोड़ दो मुझे." उसकी आँखों में भय से आँसू आ गए. और वह खोटा के हाथों से अपनी कलाई छुडाने का प्रयत्न करने लगी. परन्तु वह किसी शेर के चंगुल में फँसी हिरनी सी स्वयं को अनुभव कर रही थी. खोटा भयानकअंदाज में हँस रहा था और वह उसके हाथों से अपनी कलाई छुडाने का प्रयत्न करती रही. इस दृश्य को देखकर एक दो रास्ता चलने वाले रुक गए. परन्तु खोटा पर नजर पडते ही वे तेजी से आगे बढ़ गए. दानवी हँसी हँसता हुआखोटा, उसकी विवशता से आनन्दित हो रहा था. फिर हँसते हुए उसने धीरे से उसका हाथ छोड़ दिया. वह रोती हुई आगे बढ गई. खोटा का दानवी अट्टाहास उसका पीछा करता रहा. वह रोती हुई स्टेशन आई और लोकल ट्रेन में बैठ सिसकती रही. उसे रोता देखकर आसपास के यात्री उसे आश्चर्य से देख रहे थे.
ऑफिस पहुँचने तक रो रोकर उसकी आँखें सूज गई थीं. उसमें आया परिवर्तन ऑफिस वालों से छिप ना सका. उसे ऑफिस की सहेलियों ने घेर लिया.
"क्या बात है माया, यह तुम्हारा चेहरा क्यों सूजा हुआ है आँखें क्यों लाल हैं?" उसने कोई उत्‍तर  नहीं दिया और उनसे लिपटकर दहाडे मार मार कर रोने लगी. वह सब भी घबरा गई और उसे सांत्वना देते हुए चुप कराने की कोशिश करने लगीं. बड़ी मुश्किल से उसके आँसू रुके और उसने पूरी कहानी उन्हें सुना दी. इससे पहले भी वह कई बार उन्हें खोटा की हरकतों के बारे में बता चुकी थी परंतु उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया था.
"नौकरी करने वाली स्त्रियों के साथ तो यह सब होता ही रहता है. मेरा स्वयं का एक प्रेमी है जो अंधेरी से चर्नी रोड तक मेरा पीछा करता है."
"मेरे भी एक आशिक साहब हैं. सवेरे शाम मेरे मोहल्ले के नुक्कड पर मेरा इंतजार करते रहते हैं."
"और मेरे आशिक साहब तो ऑफिस के गिर्द मंडराते रहते हैं. आओ बताती हूँ सडक पर खडे कार्यालय की ओर टकटकी लगाए देख रहे होंगे."
"अगर खोटा तुम पर आशिक हो गया है तो यह कोई चिन्ता की बात नहीं है. तुम कुछ ही ऐसी हो कि तुम्हारे तो सौ दो सौ प्रेमी हो सकते हैं." उनकी बातें सुनकर वह झुंझला जाती.
"तुम लोगों को मजाक सूझा है और मेरी जान पर बनी है. खोटा एक गुण्डा है, बदमाश है. वह ऐसा सब कुछ कर सकता है जिसकी कल्पना भी तुम्हारे प्रेमी लोग नहीं कर सकते. परन्तु उस दिन की खोटा की यह हरकत सुनकर सब सन्नाटे में आ गई थीं.
"क्या तुमने इस बारे में अपने पति को बताया?"
"नहीं आज तक कुछ नहीं बताया. सोचती थी कोई हंगामा ना खडा हो जाए."
"तो अब पहली फुरसत में उसे सब कुछ बता दो.."
उस शाम वह सामान्य रास्ते से नहीं लंबे रास्ते से घर गई. और विनोद को सब कुछ बता दिया कि खोटा इतने दिनों से उसके साथ क्या कर रहा था और आज उसने क्या हरकत की. उसकी बातें सुनकर विनोद का चेहरा तनगया.
"ठीक है! फिलहाल तो तुम एक दो दिन ऑफिस  मत जाओ. उसके बाद सोचेंगे क्या करना है. उसके बाद वह तीन दिन ऑफिस  नहीं गई. एक दिन वह बालकनी में खडी थी. अचानक उसकी नजर नीचे गई और उसका दिल धक से रह गया. खोटा नीचे खडा उसकी बालकनी को घूर रहा था. उससे नजर मिलते ही वह दानवी अंदाज में मुस्कराने लगा. वह तेजी से भीतर आ गई.
रात विनोद घर आया तो उसने आज की घटना बताई. इस घटना को सुन कर उसने अपने हूंठ भींच लिए. दूसरे दिन ऑफिस  जाना बहुत जरूरी था. इतने दिनों तक वह सूचना दिए बिना ऑफिस से गायब नहीं रह सकती थी.
"आज मैं तुम्हें स्टेशन तक छोड़ने आऊँगा." विनोद ने कहा तो उसकी हिम्मत बँधी. विनोद उसे स्टेशन तक छोड़ने आया. जब वह गली से गुजरे तो पान स्टाल के पास खोटा मौजूद था.
"क्यों जानेमन! आज बॉडीगार्ड साथ लाई हो. तुम्हें अच्छी तरह मालूम है कि इस तरह के सौ बॉडीगार्ड मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते." पीछे से आवाज आई तो उस आवाज को सुनकर जोश में विनोद मड़ा परंतु उसने उसे थामलिया.
"नहीं विनोद, यह गुण्डों से उलझने का समय नहीं है." और वह विनोद को लगभग खींचती स्टेशन की ओर बढ गई. फिर शाम वापसी के लिए उसने लम्बा रास्ता अपनाया. परन्तु उसकी कॉलोनी के गेट के पास पहुँचते ही उसका मन धक से रह गया.
खोटा गेट पर उसकी राह था.
"मुझे अनुमान था कि तुम वापस उस रास्ते से नहीं आओ है. इसलिए तुम्हारी कॉलोनी के गेट पर तुम्हें सलाम करने आया हूं. काश तुम मुझसे फरार हासिल कर सको." यह कहते हुए खोटा उसे सलाम करता आगे बढ गया. रात विनोद को उसने सारी कहानी सुनाई, तो विनोद बोला. "कल यदि खोटा ने तुम्हें छेडा तो हम उसके विरुद्ध पुलिस में शिकायत करेंगे."
दूसरे दिन विनोद उसे छोडने के लिए आया तो खोटा से फिर आमना सामना हो गया. खोटी की गंदी बातें विनोद सहन नहीं कर सका और उससे उलझ गया. विनोद ने एक मुक्का खोटा को मारा. उत्तर में खोटा ने विनोद के मुँह पर ऐसा वार कि उसके मुंह से खून बहने लगा.
"बाबू! खोटा से अच्छे अच्छे तीसमारखाँ नहीं जीत सके तो तुम्हारी हैसियत ही क्या है?" घायल विनोद ने ऑफिस  जाने के बजाय पुलिस स्टेशन जाकर खोटा के विरुद्ध शिकायत करना जरूरी समझा. थाना प्रमुख ने सारी बातें सुनकर कहा. " ठीक है हम आपकी शिकायत लिख लेते हैं. परन्तु हम खोटा के विरुद्ध ना तो कोई सख्त कार्यवाही कर पाएँगे और ना कोई मजबूत केस बना पाएँगे. क्योंकि कुछ घंटों में खोटा छूट जाएगा और सम्भव है छूटने के बाद खोटा तुम से इस बात का बदला भी ले. वैसे आप डरेये नहीं हम खोटा को उसके किए की सजा जरूर देंगे. "
पुलिस स्टेशन से भी उन्हें निराशा ही मिली. उस दिन दोनों ऑफिस  नहीं गए. तनाव में बिना एक दूसरे से बात किए घर में ही टहलते रहे. शाम को उसने पुलिस स्टेशन फोन लगाकर अपनी शिकायत पर की जाने वाली कार्यवाही के बारे में पूछा .
"श्री विनोद!" थाना प्रभारी ने कहा. आपकी शिकायत पर हमने खोटा को स्टेशन बुलाकर ताकीद की है. यदि उसने दोबारा आपकी पत्नी को छेडा, आपसे उलझने की कोशिश की तो उसे अन्दर डाल देंगे. अन्य दिन दोनों साथ ऑफिस जाने के लिए रवाना हुए. निर्धारित स्थान पर फिर खोटा से सामना हो गया.
"वाह बाबू वाह! तेरी तो बहुत पहुँच है. खोटा से भी ज्यादा तेरी एक शिकायत पर पुलिस ने खोटा को बुलाकर ताकीद की और सिर्फ ताकीद की है ना? अब की बात खोटा ऐसा कुछ करेगा कि पुलिस को तुम्हारी शिकायत पर खोटा के ख़िलाफ़ कार्रवाई करनी ही पड़ेगी. "
"खोटा! हम शरीफ लोग हैं हमारी इज्जत हमें अपनी जान से ज्यादा प्यारी है और उस इज्जत की रक्षा के लिए हम अपनी जान भी दे सकते हैं और किसी की जान ले भी सकते हैं. इसीलिए भलाई इसी में है कि हम शरीफ लोगों को परेशान मत करो. तुम्हारे लिए और भी हजारों औरतें दुनिया में हैं. तुम कीमत अदा करके मन चाही औरत को प्राप्त कर सकते हो. फिर क्यों मेरी पत्नी के पीछे पडे हो? "
"मुश्किल यही है बाबू! खोटा का दिल जिस पर आया है वह उसे पैसों के बल पर नहीं मिल सकती. उसकी शक्ति के बल पर ही मिल सकती है."
"कमीने! मेरी पत्नी की ओर आँख भी उठाई तो मैं तेरी जान ले लूँगा." यह कहते हुए विनोद खोटा पर झपटा और उस पर बेतहाशा घूँसे बरसाने लगा. हक्का बक्का खोटा विनोद के वार से स्वयं को बचाने की कोशिश करने लगा . अचानक रास्ता चलते कुछ लोगों ने विनोद को पकड़ लिया, कुछ ने खोटा को. और वह किसी तरह विनोद को ऑफिस  जाने के बजाए घर ले जाने में सफल हो गई. खोटा से विनोद के टकराव ने उसे आतंकित कर दिया था. उसे विश्वास था कि खोटा इस अपमान का बदला जरूर लेगा. और किस तरह लेगा इस कल्पना से ही वह काँप जाती थी. वह विनोद को बहलाती रही.
"खोटा को तुमने ऐसा सबक सिखाया है कि आज के बाद तो ना वह तुमसे उलझेगा ना मेरी ओर आँख उठाने का साहस करेगा. तुमने जो कदम उठाया वह बहुत सही था." यूँ वह विनोद को बहला रही थी परन्तु भीतर ही भीतर काँप रही थी कि खोटा जरूर इसका बदला लेगा. अगर उसने विनोद को कुछ किया तो?
नहीं! नहीं! विनोद को कुछ नहीं होना चाहिए विनोद मेरा जीवन है. यदि उसके शरीर पर एक खराश भी आई तो मैं जन्दा नहीं रहूँगी. उसे ऐसा महसूस हो रहा था उसके कारण यह युद्ध छिडा है. इस युद्ध का अंत दोनों पक्षों का अंत है. इसके अलावा कुछ और निकल भी नहीं सकता. भलाई इसी में है कि दोनों पक्षों के बीच संधि करा दी जाए. ताकि युद्ध की नौबत ही न आए. परन्तु वह संधि किस प्रकार सम्भव थी. खोटा बदले की आग में झुलस रहा होगा और जब तक बदले की यह आग नहीं बुझेगी उसे चैन नहीं आएगा. उसे खोटा एक अजगर अनुभव हो रहा था. जो उसके सामने खडा उसे निगलने के लिए अपनी जीभ बार बार लपलपाता और फनकार रहा था. उस अजगर से उसे अपनी रक्षा करनी थी. दूसरे दिन वह ऑफिस  जाने लगी तो पान पर खोटा का सामना हो गया. वह क्रोध भरी दृष्टि से उसे घूर रहा था. उसने मुस्कराकर देखा और आगे बढ़ गई. उसे मुस्कराता देखकर खोटा आश्चर्य से उसे आँखें फाड़ फाड़ कर देखता रह गया.
एक दिन फिर वह ऑफिस  जाने लगी तो मुस्कराता हुआ खोटा उसका रास्ता रोककर खड़ा हो गया. उसकी आंखों में एक चमक थी.
"मेरा रास्ता छोड़ दो." वह क्रोध भरी दृष्टि से उसे घूर हुई क्रोध से बोली.
"जानम अब तो हमारे तुम्हारे रास्ते एक ही हैं." कहते हुए खोटा ने उसका हाथ पकड़ लिया. उसने एक झटके से अपना हाथ छुड़ा लिया और समीप खडे नारियल पानी बेचने वाले की गाडी से नारियल छिलने की तेज दरांती उठाकर खोटा की ओर खेरनी की तरह लपकी. खोटा के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. अचानक वह सिर पर पैर रखकर भागा. वह उसके पीछे दरांती लिए दौड रही थी.
फूलती हुई साँसों के साथ खोटा अपनी गति बढाता जा रहा था. जब खोटा उसकी पहुँच से बहुत दूर चला गया तो वह खडी होकर अपनी फूली हुई साँसों पर नियंत्रण पाने की कोशिश करने लगी. और फिर दरांती को एक ओर फेंककर ऑफिस  चल दी.
 
...
अप्रकाशित
मौलिक
------------------------समाप्‍त--------------------------------पता
एम मुबीन
303 क्‍लासिक प्‍लाजा़, तीन बत्‍ती
भिवंडी 421 302
जि ठाणे महा
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Hindi Short Story Sawali By M.Mubin


कहानी      सवाली   लेखक  एम मुबीन   

इमाम ने सलाम फेरा और उसी समय िकब से उभरने वाली आवाज को सुनकर सभी प्रार्थना पीछे मुड़ कर देखने लगे. एक व्यक्ति खड़ा था.
"बंधुओं! मेरा संबंध बिहार से है. मेरी लड़की के दिल का ऑपरेशन होने वाला है इस संबंध में, मैं यहाँ आया हूँ. ऑपरेशन के लिए लाखों रुपये की आवश्यकता है. आपकी सहायता का कतरा कतरा मिलकर मेरे लिए सागर बन जाएगा . मेरी बेटी की जान बच जाएगी. मेरी बेटी की जान बचाकर सवाब दारीन प्राप्त करें. "व्यक्ति की आवाज़ सुन कर कुछ नमाज़ियों के चेहरों पर नागवार के टिप्पणी उभरे कुछ गीज़ व गज़ब भरी नज़रों से उसे देखने लगे. कुछ बड़बड़ाने लगे .
"लोगों ने धंधा बना लिया है. परमेश्वर के घर में बैठ कर भी झूठ बोलते हैं."
"भगवान के घर, नमाज़ का भी कोई सम्मान नहीं. नमाज़ ख़त्म भी नहीं हुई और हज़रत शुरू हो गए."
"नमाज़ के दौरान इस प्रकार के सूचना पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए." बातों का सिलसिला बीच में ही टूटी हो गया. क्योंकि इमाम ने प्रार्थना  के लिए हाथ उठा लिए थे.
पता नहीं क्यों उस व्यक्ति की बात सुन कर उनके दिल में एक हूक सी उठी. उस व्यक्ति के बैठ जाने के बाद भी वह बार बार उसे मुड़ कर देखते रहे. उन्हें उस व्यक्ति का चेहरा बड़ा दीं लगा. ऐसा लगा जैसे यह व्यक्ति सचमुच मदद छात्र है और यह झूठ बोल रहा है. उसे ऐसा सचमुच अपने बेटी की जान बचाने के लिए सहायता चाहिए. प्रार्थना समाप्त हो गई और वह इसी बारे में सोचते रहे. वह मस्जिद से बाहर निकले तो उन्हें व्यक्ति मस्जिद के दरवाज़े के पास एक रूमाल फैलाए बैठा दिखाई दिया. रूमाल में कुछ सिक्के और एक दो एक दो रुपया की नोटें फैली थीं. एक क्षण के लिए वह रुक गए जेब में हाथ डाला और पैसों का अनुमान लगाने लगे और आगे बढ़ गए .
घर आए तो बहू और बेटा एक आदमी के साथ बातें कर रहे थे.
"यदि आप सेल्ङ्ग लगाते हैं?" वह आदमी कह रहा था. "तो मैं आप को बिल्कुल नए शैली की सेल्ङ्ग लगा कर दूंगा. इस तरह की सेल्ङ्ग मैं एक फिल्म स्टार के बेडरूम में लगाई है. एक बड़ी कंपनी के ऑफिस में भी इसी तरह की सेल्ङ्ग है. अगर आप केवल सेल्ङ्ग लगाईं तो पूरे फ्लैट में सेल्ङ्ग लगाने का खर्च पच्चीस हजार रुपये के समीप  आएगा. यदि आप सेल्ङ्ग सिर्फ बेडरूम में लगाना चाहते हैं तो दस हजार रुपये के समीप  खर्च आएगा. "
"पूरे फ्लैट में सेल्ङ्ग लगाने की कोई आवश्यकता नहीं है. केवल बेड रूम में ही सेल्ङ्ग लगायेंगे." बहू बेटे की ओर सवालिया नज़रों से देख रही थी. अभी पिछले साल ही तो बीस हजार रुपये खर्च कर सेल्ङ्ग लगवाए थी. "इतनी जल्दी सीलिंग बदलने की आवश्यकता नहीं है हाँ बेडरूम में सीलिंग बदलने की सख्त जरूरत है क्योंकि बेडरूम में नया पिन तो होना चाहिए. "
"ठीक है!" बेटा उस आदमी से कहने लगा कि तुम कल ऑफिस आकर पाँच हज़ार रुपये ाडोांस ले लेना और परसों काम शुरू कर देना. काम दो तीन दिन में समाप्त हो जाना चाहिए. "
"साहब दो तीन दिनों में काम समाप्‍त  होना तो मुश्किल है कम से कम आठ दिन तो लगेंगे ही." वह आदमी कहने लगा.
"ठीक है! परंतु कम से कम समय में काम समाप्‍त  करना अगले महीने मैम साहब की बर्थ डे है. उस बर्थ डे पार्टी में अपने और मैम साहब के दोस्तों को सरपुरायज़ गिफ्ट देना चाहता हूँ." बेटा कह रहा था.
"आप चिंता न करें काम समय पर हो जाएगा." वह आदमी उठकर जाने लगा.
"अरे हाँ मुझे अपनी उस बर्थ डे पर कोई कीमती गिफ्ट चाहिए जो कम से कम बीस हजार रुपये का हो और फिर पार्टी पर भी तो दस बारह हजार रुपए खर्च तो होंगे ही. फिर यह सीलिंग का काम. इतने पैसे हैं भी या नहीं? "
"तुम चिंता क्यों करती हो. सारा इंतजाम हो जाएगा." बेटा बोला. अचानक उसकी नजर उन पर पड़ी. "अरे अब्बा जान! आइए. हम लोग आप ही का इंतज़ार कर रहे थे.
"चलिए जल्दी से हाथ मुंह धो लीजिए. नर्गिस ज़रा खाना लगाना."
"अभी लगाती हूँ." कहती हुई बहू उठ गई. खाना लगा गया और वह साथ में खाना खाने लगे. खाना खाते समय भी उनका ध्यान कहीं और ही उलझा हुआ था. बेटा फ्लैट की छत बदलने पर दस बीस हजार रुपये खर्च करने परतैयार है. पत्नी के जन्मदिन पर दस बीस हजार रुपये का उपहार देने के लिए तैयार है जन्मदिन की पार्टी पर दस बारह हजार रुपए खर्च करेगा. ख़ुदा ने उसे आसोदगी प्रदान की है. जिसके लिए मैं जीवन भर तरसता रहा.
मरियम! लगता है हमारे बुरे दिन दूर हो गए हैं तुम्हारी भी सारी दुख कष्ट दूर होने वाली हैं. तुम्हें बहुत जल्द इस मोज़ी रोग से मुक्ति  मिलने वाली है रात को सोने के लिए लेटे भी तो कोई बेटा ही छाया हुआ था.
"बेटे आमिर! ऐसा लगता है तुम मेरे सारे सपनों को पूरा कर दोगे. तुम्हारे बारे में मैंने जो जो सपने देखे थे वह सारे सपने पूरे कर दोगे. ख़ुदा तुम्हें जीवन के हर परीक्षा में सफल करे. और सारी दुनिया की मसरतें , खुशिया आकर तुम्हारी झोली में जमा हो जाएं. उनकी आंखों के सामने पांच छह साल के आमिर की तस्वीर घूम गई. जब वह खेतों में काम कर रहे होते तो आमिर अपने नन्हे नन्हे हाथों में तख्ती थामे दौड़ता हुआ आता था और दूर से उनसे चीखकर कहता था कि अब्बा! आज मास्टर जी ने हमें ए से लेकर सात तक शब्द सखाए हैं. मुझे अब आपके, त सब लिखना आता है देखिए मैंने लिखा है. वह आकर उनसे लिपट जाता था. अपनी तख्ती उनकी ओर बढ़ा देता था. तख्ती पर लिखे नन्हें नन्हें अक्षर पर नज़र पड़ते ही उनका दिल खुशी से झूम उठता था.
"बेटे मेरा दिल कहता है तो मेरा नाम सारी दुनिया में रौशन करेगा. तो एक दिन पढ़ लिखकर बहुत बड़ा आदमी बनेगा." और सचमुच आमिर ने निचली दलों से ही उनका नाम रोशन करना शुरू कर दिया था.
गांव का हर व्यक्ति जानता था कि आमिर पढ़ने लिखने में बहुत सावधान है. हमेशा क्लास में अव्वल आता है. दसवीं परीक्षा में तो पूरे बोर्ड में तीसरा आया था और उसकी इस सफलता से न केवल उनका बल्कि सारे गाँव और गाँव की इस छोटी सी स्कूल का नाम भी उजागर हो गया था और उसके बाद आमिर को उच्च शिक्षा के लिए शहर जाना था. यह तो बहुत पहले ही तय हो चुका था कि वह आमिर को उच्च शिक्षा के लिए शहर भेजेंगे.
मरियम ने अपने कलेजे पर पत्थर रख लिया था और पत्थर रख कर उस ने आमिर को उच्च शिक्षा के लिए शहर रवाना किया था. जिसे वह एक क्षण अपनी आंखों से जुदा नहीं होने देना चाहती थी. आख़िर उसकी एक ही तो औलाद थी. दो तीन बच्चे तो नहीं थे जिनमें से दिल बहला सके. पता नहीं क्यों कुदरत ने उन्हें आमिर के बाद औलाद नहीं दी.
आमिर का प्रवेश एक अच्छे कॉलेज में हुआ. अच्छे नंबरों के कारण यह गृह मुमकिन हो सका था. परंतु कॉलेज की फीस तो अदा करनी ही थी. शुल्क इतनी अधिक थी कि उनकी सारी बचत भी कम पड़ रही थी और मरियम के गहने बेच करने के बाद भी फीस के पैसे जमा नहीं हो रहे थे.
यह तय किया गया कि खेत का एक टुकड़ा बेच दिया जाए. बच्चे के भविष्य और उसकी पढ़ाई से बढ़ कर खेत नहीं है. अंत यह सब तो उसी का है. अगर यह काम नहीं आए तो क्या ोकित. खेत एक टुकड़ा बेचकर आमिर शुल्क अदा कर दी गई और उसकी पढ़ाई के खर्च का इंतजाम भी कर लिया गया. बढ़ती उम्र के साथ उनसे खेतों में काम नहीं होता था. खेत में मजदूर लगवा कर उनसे काम लेते थे. कभी कभी जब वह किसी काम से गाँव से बाहर जाते तो यह काम मरियम को करना पड़ता था. मरियम की पुरानी बीमारी का ज़ोर बढ़ता ही जा रहा था.
रात में जब ठंडी हवाएं चलते तो दमे का ज़ोर कुछ इतना बढ़ जाता था कि उन्हें मरियम को संभालना मुश्किल हो जाता था. मौसम के बदलने से दमा से राहत मिलती तो गुर्दे की पथ्री ज़ोर करती थी और इन्हीं दो बीमारियों की वजह से उन्हें मरियम को बार बार शहर ले जाना पड़ता था. गांव में आने वाले डॉक्टर मरैम की इन बीमारियों का सही रूप से इलाज नहीं कर पाते थे. शहर के एक अच्छे डॉक्टर के इलाज से थोड़ा अ. फ़ाकह हो जाता था. मरियम की दवाओं का खर्च आमिर की पढ़ाई के खर्च के बराबर था. खेत में नई फसल आते ही सबसे पहले दोनों के खर्च के पैसे अलग उठा कर रख देते थे. परंतु न तो आमिर की पढ़ाई के खर्च की कोई सीमा थी और न मरियम की बीमारी के खर्च की . दोनों बार बार अपनी सीमा को पार कर जाते थे और उनका सारा बजट गड़बड़ी जाता था. ऐसे में मरियम त्याग की मूर्ति बन जाती थी. वह लाख तकलीफों को सहन  कर लेती थी और उनसे कहती थी कि मेरी तबीयत ठीक है. डॉक्टर के पास जाने की जरूरत नहीं है. पैसे आमिर को भेज दो. वह पत्नी के समर्पण को समझते थे परंतु इस मामले में पत्नी से बहस नहीं कर पाते थे. क्योंकि बेटे की पढ़ाई सामने सवालिया निशान बनकर खड़ी हो जाती थी और आमिर हर बार अच्छे नंबरों से पास होता था. और उसकी सफलता से वह खुशी से झूम उठते थे. कि आमिर के लिए वह जो इबादत कर रहे हैं. प्रकृति उन्हें उनकी इस पूजा का फल दे रहा है. आखिर वह दिन आपहोनचा जब आमिर ने शिक्षा अच्छे स्तर से पूरी कर ली.
"अब्बा! अब आप को दिन भर धूप आग में खेतों में काम करने की कोई जरूरत नहीं है. अब हमें खेती करने की कोई जरूरत नहीं है. अल्लाह ने चाहा तो मुझे बहुत जल्दी कोई अच्छी नौकरी मिल जाएगी और मुझे इतनी आय होगी कि आय से आसानी से मैं आप लोगों की देखभाल कर सकता. अम्‍मी  का किसी अच्छे डॉक्टर से इलाज कर सकता ताकि अम्‍मी  की बीमारी जड़ से हमेशा के लिए समाप्‍त  हो जाए.
आमिर की बात सच भी थी. आमिर ने जो शिक्षा प्राप्त की थी शिक्षा की वजह से उसे ऐसी नौकरी तो आसानी से मिल सकती थी कि इसमें इन तीनों का गुज़ारा हो जाए. खेतों में काम न करने के आमिर के निर्णय से भी हुसैन थे अब उनसे भी धूप में खेतों में काम करने वाले मजदूरों की निगरानी का काम नहीं होता था. वह खेत में होते थे. परंतु उनका सारा दिल घर में लगा होता था. मरियम कैसी होगी फिर कहीं दर्द का दौरा तो नहीं पड़ गया? कई बार ऐसा हुआ जब वह खेत से वापस आए तो उन्होंने मरियम कभी पथ्री के दर्द या कभी दमे के दौरे के दर्द से तड़पता हुआ पाया. बस इसी कारण मरियम को छोड़ कर जाने को उनका दिल नहीं चाहता था.
शिक्षा समाप्त करने के बाद आमिर एक दो सप्ताह उनके पास आकर रहा था. फिर नौकरी की खोज में वापस शहर चला गया. एक सप्ताह के अंदर उसका पत्र आया कि उसे एक अच्छी नौकरी मिल गई है. दो महीने बाद आया तो कहने लगा. पहले से भी अच्छी जगह नौकरी मिल गई है. इसलिए उसने पहली नौकरी छोड़ दी है.
तीन चार महीने के बाद पत्र आया कि उसने एक छोटा सा कमरा ले लिया है. वे चाहें तो आकर उसके साथ रह सकते हैं. आमिर के पास जाकर रहना एक तज़ाद का मामला था. दोनों उसके लिए राज़ी नहीं थे. अपना गाँव, खेत और घर छोड़ कर अजनबी शहर कहां जाएं? वहां न किसी से जान न पहचान. फिर वहाँ के हजारों समस्याओं. आमिर के बहुत जोर देने पर वह कुछ दिन उसके पास रहने आए. परंतु आने के बाद दोनों का यही मानना था कि उसके पास शहर में नहीं रह सकते. उन्हें वहां का वातावरण रास नहीं आया था न उनमें वहाँ समस्याओं का सामना करने की ताब थी. इस बीच में आमिर ने उन्हें लिखा उसने एक लड़की पसंद कर ली है और लड़की के घर वाले इस विवाह  आमिर से करने के लिए तैयार हैं . आप लोग आकर इस मामले को तय कर जाएं. इस बात को पढ़कर वह खुशी से झूम उठे थे. आमिर ने उनके सरका एक बोझ हल्का कर दिया था. उन्हें आमिर के लिए लड़की डखविंडनी नहीं पड़ी थी. उसने स्‍वंय  खोज ली थी. विवाह  ब्याह के बारे में वे इतने दकियानूसी नहीं थे कि आमिर की इस बात का बुरा मान जाएं. उनका विचार था कि आमिर को उस लड़की के साथ जीवन गज़ारनी है. उसने स्‍वंय  लड़की पसंद है तो लड़की अच्छी ही हो है.
एक दिन जाकर नरगस को देख आए और विवाह  की तारीख भी पक्की कर आए. इसके बाद उन्होंने बड़ी धूम से आमिर की विवाह  की. गांव के जो लोग भी उनके साथ आमिर की विवाह  के लिए शहर गए थे उनका भी कहा कि आज तक गांव में इतनी धूम धाम से किसी की विवाह  नहीं हुई.
इस विवाह  में उनकी सारी जमा पूंजी और मरियम के सारे गहने के साथ जमीन का एक टुकड़ा भी बुक गया परंतु फिर भी उन्हें कोई ग़म नहीं था. वह एक कर्तव्य से सबक दोष हो गए थे जैसे उनकी किस्मत में प्रकृति ने आराम लिख दिया था. आमिर हर महीने इतनी रकम भेजता था कि उन्हें खेतों में फसल उग वाने की जरूरत ही महसूस नहीं होती थी और उस रकम में उनका आराम से गुजर बसर हो रहा था.
मामला उस समय गड़बड़ी जाता जब आमिर राशि रवाना नहीं करता और रवॉनह नहीं करने के कारण लिख देता. नर्गिस अस्पताल में थी उसकी बीमारी पर काफी खर्च हो गया. नया फ्लैट बुक गया के पैसे भरने हैं. रंगीन टीवी लिया है उसकी किश्तें चुकानी हैं. फिर मरियम की बीमारियां भी जोर पकड़ने लगीं. कभी कभी उन्हें भी छोटी मोटी बीमारियां आ घीरतें तब उन्हें लगता कि आमिर पर तकिया करना बेवकूफी है. चाहे कुछ भी हो उन्हें आराम करने की बजाय खेतों में काम करना चाहिए. और वह फिर से खेतों की ओर आकर्षित हो गए. इस वजह से उनकी बीमारियां भी बढ़ने लगी और मरियम की. मरियम कभी कभी दर्द के इतने गंभीर दौरे पड़ते थे कि लगता कि अभी उसकी जान निकल जाएगी . डॉक्टर ने भी साफ उत्‍तर  दे दिया था. अब तक दवाओं से दर्द को दबाने की कोशिश के साथ पथ्री समाप्त करने की कोशिश भी करता रहा हूँ. परंतु न तो पथ्री समाप्‍त  हो सकी है और न दर्द और उस समय जो स्थिति हाल है उसके मद्देनजर ऑपरेशन बेहद जरूरी है. वरना किसी दिन दर्द का दौरा जान लेवा साबित होगा.
मरियम के जीवन के लिए ऑपरेशन बेहद जरूरी था और उस पर दस पन्द्रह हज़ार रुपए के खर्च की उम्मीद थी. इतनी राशि उनके पास नहीं थी. डॉक्टर ने जल्द ऑपरेशन करने पर ज़ोर दिया था. इसलिए उन्होंने सोचा सारी स्थिति से आमिर को सूचित कर दिया जाए. वह मरियम के ऑपरेशन की व्यवस्था कर देगा. इसके लिए वह आमिर के पास आए आते ही इधर उधर की बातों के बाद और फिर रात का खाना खाकर सोने के लिए आलेटे. सोचा सवेरे इत्मीनान से बातें करेंगे.
दूसरे दिन नाश्ते की मेज़ पर उन्होंने सारी स्थिति बेटे के सामने रख दी. "अब्बा मैंने आपको बार बार लिखा था कि आप अम्‍मी  के उपचार से कोताही न बरतें उनकी बीमारी बहुत खतरनाक है."
"डॉक्टर कहता है अब ऑपरेशन बेहद जरूरी है." वह बताने लगे. "वरना किसी दिन भी तुम्हारी अम्‍मी  की जान जा सकती है. ऑपरेशन में दस पन्द्रह हज़ार रुपये खर्च आएगा. इसलिए मैं तुम्हारे पास आया हूँ. अगर तुम पैसों का व्यवस्था कर दो तो ऑपरेशन करवा लूँ. डॉक्टर ने सारी तैयारियां कर ली हैं. "
"ऑपरेशन?" उनकी बात सोच कर आमिर कुछ सोच में डूब गया. "दस पन्द्रह रुपए की व्यवस्था?" बहू बेटे का मुंह देखने लगी.
"अब्बा! अब आपसे क्या कहूँ में भला इतनी बड़ी रकम का प्रबंधन कैसे कर सकता हूँ. आप जानते हैं मेरे पीछे कितने खर्च हैं. आपको नियमित रूप से पैसा रवाना करना होता है. उस फ्लैट को खरीदने के लिए जो ऋण लिया थाकी किश्तें कट रही हैं. फर्नीचर और टीवी वालों की उधार देना है. समझ लीजिए उस समय कंधे तक ऋण में धनसा हूँ और आप अम्‍मी  के ऑपरेशन के लिए दस पन्द्रह हज़ार रुपये मांग रहे हैं? "
बेटे की बात सुन कर आश्चर्य वह उसका मुंह ताकने लगे. बेटे ने नज़रें चुरा लें तो वह फ्लैट की छत को घूरने लगे जहां नई शैली की सेल्ङ्ग लगी थी. अचानक उनकी आँखों के सामने मस्जिद में अपनी बेटी के दिल के ऑपरेशन के लिए लोगों से मदद मांगने वाले उस आदमी का चेहरा घूम गया और वह लरज़ उठे. उन्हें लगा जैसे वह बेटे के फ्लैट के दरवाजे पर रूमाल बिछा कर उस से मां के ऑपरेशन के लिए मदद मांग रहे हैं.
 
...
अप्रकाशित
मौलिक
------------------------समाप्‍त--------------------------------पता
एम मुबीन
303 क्‍लासिक प्‍लाजा़, तीन बत्‍ती
भिवंडी 421 302
जि ठाणे महा
मोबाईल  09322338918

Hindi Short Story Yatna Ki Ek Rat By M.Mubin


कहानी  यातना की एक रात लेखक  एम मुबीन   

पत्नी के बुरी तरह झकझोरते पर आंख खुली. वही हुआ जो आमतौर पर इस तरह अचानक जागरूक किए जाने पर होता है. हृदय की धडकनें तेज हो गईं. साँसें अपनी पूरी गति से चलने लगीं और भाषा रेत का रेगिस्तान और गले में कानों का जंगल उभर आया.
"क्या है?" बड़ी मुश्किल से होंटों से आवाज़ निकली और अपने होंटों पर जीभ फेरकर भाषा तर करने की कोशिश करने लगा.
"बाहर पुलिस आई है." पत्नी कलेजा पकड़ कर बोली.
"पुलिस?" उसके माथे पर बल पड़ गए. "इतनी रात गए इस इलाके में पुलिस का क्या काम?"
"सायरन की आवाज़ सुनकर आंख खुल गई. फिर सन्नाटे में ऐसा लगा जैसे कई वाहन आकर रुकी. और फिर भारी भरकम बोों की आवाज़ गली में गूंज लगी." पत्नी बताने लगी. "फिर वातावरण में वही पुलिस के पारंपरिक प्रश्न गरजने लगे.
"दरवाज़ा खोलो, कौन हो तुम कहाँ से आए हो और कितने दिनों से यहां रह रहे हो." अब पत्नी की बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि फिर गली में भारी भरकम क़दमों की आवाज़ गूंज और दरवाजा खटखटाया जाने लगा. उसकादिल धड़क उठा. वह डर नज़रों से दरवाजे की ओर देखने लगा. परंतु जब फिर दरवाजा खटखटाया गया तो अंदाज़ा हुआ उनका नहीं पड़ोसी का दरवाजा खटखटाया जा रहा है.
"दरवाज़ा खोलो वरना हम दरवाजा तोड़ देंगे." एक तेज़ आवाज़ गूंज और उसके बाद दरवाज़ा खुलने और फिर पड़ोसी की घबराई हुई आवाज़.
"क्या बात है, कौन है?"
"दिखाई नहीं देता, हम पुलिस वाले हैं."
"पुलिस?" सिद्दीकी साहब घबराए हुए थे. "क्या बात है इन्‍सपेक्‍टर  साहब! इतनी रात आप मेरे घर आने की ज़हमत क्यों की?"
"हमें तुम्हारे घर की तलाशी लेनी है."
"तलाशी और मेरे घर की, मगर क्यों?"
"हमें तुम्हारे घर की तलाशी लेनी है."
"परंतु मेरे घर की तलाशी क्यों ली जा रही है?"
"केवल तुम्हारी ही नहीं, पूरे क्षेत्र के हर घर की तलाशी की जा रही है और हमारे इस मिशन का नाम है कोम्बनग ऑपरेशन."
"परंतु हमारे इस क्षेत्र में आपको कोम्बनग करने की जरूरत क्यों पेश आया है?"
"इसलिए कि हमें पता चला है कि इस क्षेत्र में अवैध काम होते हैं. और यह क्षेत्र अपराधियों की आमास्थाह है. इस पूरे क्षेत्र में बांग्लादेशी और आई. एस. आई एजेंट फैले और छिपे हुए हैं."
"परंतु हमारा इन सभी बातों से कोई संबंध नहीं है हम नौकरी पेशा शरीफ लोग हैं?"
"शरीफ़ लोग हैं, नौकरी पेशा लोग हैं और झोपडपटटी में रहते हो?"
"शरीफ़ और नौकरी पेशा लोगों का झोपडपटटी में रहना कोई अपराध तो नहीं है."
"हे! अधिक बुक बुक मत कर हम अपना काम करने दे. हमें कानून मत सिखा, क्या? अधिक होशियारी की तो उठाकर पटख दूंगा साला स्‍वंय  को सज्जन बताता है. प्रथम! उसके घर की अच्छी तरह से तलाशी लो. अगर कोई भी चीज़ मिले तो उसे बताना कि सज्जनता क्या है? पुलिस के कामों में टांग अड़ाती है. इसके बाद सिद्दीकी साहब की आवाज़ नहीं सुनाई दी परंतु घर के एक सामान को उलट पलट करने, गिराने और फेंके की आवाज़ें ज़रूर पॉप लगीं.
"साहब देखिए कितना बड़ा छरा है."
"यह मांस काटने का छरा है." सिद्दीकी साहब की आवाज़ उभरी.
"यह मांस काटने का छरा या मर्डर करने का अभी पता हो जाएगा. हवलदार उसे हथकड़ी डाल कर ले चलो." इंस्पेक्टर की आवाज़ उभरी. "नहीं नहीं!" सिद्दीकी साहब की पत्नी की आवाज़ उभरी. "मेरे पति को कहाँ ले जा रहे हो, नहीं मैं अपने पति को बिना किसी कारण तुम्हें घर से ले जाने नहीं दूंगी. "
"हे बाई! दलों सरक, हमारे काम में दखल देने की कोशिश मत कर वरना बहुत भारी पड़ेगा." एक गरजदार आवाज़ उभरी.
"इन्‍सपेक्‍टर  साहब मैं सच कहता हूँ आप को गलतफहमी हो रही है. एक शरीफ नौकरी पेशा आदमी हूं." सिद्दीकी साहब की आवाज़ उभरी.
"साब बंगाली किताबें." एक आवाज़ उभरी.
"यह देखिए! कई बंगाली किताबें हैं."
"तो यह आदमी जरूर बांग्लादेशी होगा."
"बांग्लादेश में भारतीय हूं."
"यदि भारतीय हो तो फिर यह बंगला भाषा की किताबें तुम्हारे पास कहाँ से आईं?"
"मुझे बांग्लादेश साहित्य में रुचि है. इसलिए बंगला भाषा की किताबें पढ़ता हूं."
"वह सब पुलिस स्टेशन में साबित करना कि तुम बांग्लादेशी हो या भारतीय." इसके बाद सिद्दीकी साहब को शायद धक्के देकर कमरे से बाहर ले जाया गया. उनकी पत्नी की दाद फ़रियाद की आवाज़ें, डानों और गालयों के शोर में दब रह गई थीं. इसके बाद उनकी बारी थी दरवाज़ा ज़ोर से पीटा जाने लगा.
"कौन?" धड़क दिल थाम कर बड़ी मुश्किल से वह कह सका.
"पुलिस! दरवाजा खोलो. हम तुम्हारे घर की तलाशी लेना चाहते हैं." बाहर एक गरजदार आवाज़ उभरी. उसने बिना कोई पसो पेश के द्वार खोल दिया. सात आठ पुलिस के सिपाही और एक इंस्पेक्टर धड़धड़ाते हुए कमरे में घुस आए और तेज नज़रों से कमरे की एक एक वस्‍तु  की समीक्षा लगे. इसके बाद वह बड़ी तेजी से कमरे के एक कोने की ओर लपके और वहां की चीज़ें और सामान बड़ी बे दरदी नीचे ऊपर और पटखनी लगे. पत्नी डर से थर थरकांप उसके सीने से आ लगी.
"क्या नाम है तुम्हारा?" इंस्पेक्टर ने कड़क कर पूछा.
"रहस्य अहमद."
"पता है. जगह रहस्यमय अहमद नहीं तो क्या सचिन खेडीकर रहेगा. क्या काम करते हो?"
"एक सरकारी कार्यालय में नौकरी करता हूँ."
"सरकारी कार्यालय में नौकरी करते हो." इन्‍सपेक्‍टर  आश्चर्य से उसे देखने लगा.
"और यहाँ रहते हो?" "साब ज़रूर इस संबंध आईएसआई से है. ये लोग सरकारी कार्यालयों में काम करते हैं और देश से गद्दारी करते हुए जासूसी करते हैं देश के राज़ बेचते हैं." ऐसा लगा जैसे शरीर सारी शक्ति दाहिने हाथ में जमा हो गई है. और वह हाथ मक्का के रूप में हवलदार के मुँह पर पड़ने के लिए बेताब है. उसने बड़ी मुश्किल से स्‍वंय  पर काबू पाया और आगे बढ़कर अपनी पैंट की जेब से अपने कार्यालय का कार्ड निकाला और इंस्पेक्टर की ओर बढ़ा दिया.
"ओह! तो मंत्रालय में हो?" इंस्पेक्टर ने कार्ड देखते हुए कहा. "ठीक है हम अपना काम कर लिया है. प्रथम! चलो बाहर निकलवा." उसने दूसरे सिपाहियों को आदेश दिया और सब कमरे से बाहर निकल गए. सारा घर कबाड़ा गृह बन गया था. वह और पत्नी विवश्‍ता  से अपने घर के बेतरतीब सामान को देखने लगे फिर पत्नी एक सामान को उठाकर अपनी जगह रखने लगी. उसके बाद उनके पड़ोस के कमरे पर हमला हुआ था. असग़र नशे में धुत था. पैदा करने पर वह पुलिस से उलझ गया. "साला! तुम पुलिस वाले अपने आपको क्या ख़ुदा समझते हो. कभी शरीफ लोगों के घरों में भी धड़क घुस आते हो. उनकी मीठी नींद खराब करते हो. चले जाओ नहीं तो एक एक को देख लूँगा. "
"साले अधिक चर्बी चढ़ गई है शायद, ठहर जा! अब तेरी चर्बी उतारते हैं." और उसके बाद डंडों के बरसने की आवाज़ें और असग़र की चीखें वातावरण में गूंज लगीं. "बचाव! बचाव! नहीं! नहीं! मुझे मत मारो. "इस की चीजों में उसके घर वालों, पत्नी और बच्चों की चीखें भी शामिल थीं. इसके बाद असग़र को खींचते हुए बाहर ले जाया गया था. इस प्रकोप  का सिलसिला चाल के दूसरे कमरों पर तारी रहा.
"या खुदा! हम लोगों का यह हाल है तो बस्ती के दूसरे लोगों का क्या हाल होगा." बड़बड़ाते हुए उसने सोचा. वह बस्ती झनपड़ पट्टी ज़रूर थी परंतु इतनी बदनाम नहीं थी. जितनी आम तौर पर दूसरी झनपड़ पट्टियाँ हैं.वहां इक्का दुक्का अपराध होते थे और वहां अपराधियों की संख्या बहुत कम थी. इस बस्ती के बीच में एक छोटी सी चाल थी. आठ दस कमरों पे शामिल. पहले वह बस्ती नहीं थी केवल वही चाल थी. जहां उसके जैसे नौकरी व्यावसायिक आकर बस गए थे. जो अपनी साख के अनुसार शहर के पाश इलाके में घर, मकान लेने में असमर्थ थे. अपने पास जमा छोटी सी राशि डपाज़ट के रूप में देने के बाद उन्हें उसी चाल में कमरा मिला था. इसके बाद जीवन भर की कमाई पेट की आग, जीवन की समस्याओं, बच्चों की परवरिश और शिक्षा की भेंट हो गई थी. इस चाल से बाहर निकलने का मौका ही नहीं मिला. और चाल के आसपास मशरूम की तरह झोपडपटटी बढ़ती और बस्ती गई. झोपडपटटी उनकी तरह अच्छे शरीफ और संकट  के मारे लोग भी थे. जो सिर छिपाने के लिए वहां बसे हुए थे तो सर फिरे, जाहिल, उजड़ और गनवार भी थे. ऐसे लोगों को इस तरह के प्रकोप  भी सहने पड़ते हैं.
"रहस्य भाई रहस्यमय भाई! कुछ करें, पुलिस उन्हें ज़बरदस्ती पकड़ कर ले गई है." सिद्दीकी साहब की पत्नी रोती हुई उसके पास आई.
"आप धैर्य  रखें भाबी! कुछ नहीं होगा मैं देखता हूँ." उसने सिद्दीकी साहब की पत्नी को सांत्वना दी और फिर पत्नी से बोला. "शकीलह! तुम अपना ख्याल रखना मैं अभी आया.
"आप कहाँ जा रहे हैं? मुझे बहुत डर लग रहा है." पत्नी बोली.
"डरने की कोई बात नहीं है. तुम सिद्दीकी साहब के घर चली जाओ." यह कहकर बाहर आया तो शायद प्रकोप  समाप्‍त  हो चुका था. पुलिस की वाहन जा चुकी थीं. चाल और आसपास के क्षेत्र के दस बारह लोगों को गिरफ्तार कर पुलिस स्टेशन ले जाया जा चुका था. जो बच गए थे आपस में सलाह कर रहे थे जिन्हें पुलिस पकड़ कर ले गई है, उन्हें कैसे वापस लाया जाए. असग़र तो शराब के नशे में धुत था और अकारण पुलिस से उलझ गया था उसे तो पुलिस छोड़ने से रही. उनके लिए इसका नशा में होना ही काफी था. परंतु सिद्दीकी साहब को ख्वामख्वाह पुलिस स्टेशन ले जाया गया. उनकी पत्नी की हालत गैर है. वह मेरे पैरों पर गिर कर विनती कर रही थी कि सिद्दीकी साहब को वापस लाया जाए. पड़ोसी एक जगह जमा होकर बातें कर रहे थे. "ठीक है! चलो पुलिस स्टेशन चलकर देखते हैं और इंस्पेक्टर को समझाने की कोशिश करते हैं कि सिद्दीकी साहब सज्जन हैं. उनका संबंध ऐसे किसी आदमी से नहीं है. जिसकी खोज में उन्होंने यह प्रकोप  इस बस्ती पर डखाया था. वह बोला तो सब उसके साथ पुलिस स्टेशन जाने के लिए राजी हो गए.
पुलिस स्टेशन में लोगों की भीड़ थी. कुछ तो लोग थे जो इस ऑपरेशन के तहत पकड़ कर लाए गए थे. कुछ उन्हें छुड़ाने के लिए आए थे. पुलिस बड़ी सख्ती से पेश आ रही थी. किसी को पुलिस स्टेशन में कदम रखने की अनुमति नहीं थी. "जाओ सवेरे आना. सवेरे तक यह लोग यहां रहेंगे. सवेरे उनके बारे में सोचेंगे कि उनका क्या होगा." उसने अपना कार्ड बताया तो उसे अन्दर जाने की अनुमति दी गई. उसने इंस्पेक्टर से सिद्दीकी साहब के बारे में बात की.
"इन्‍सपेक्‍टर  साहब! सिद्दीकी साहब को पिछले दस सालों से जानता हूं. उनका संबंध अपराधियों, आतंक  या देश दुश्मन लोगों से नहीं है. वह एक शरीफ़ नौकरी पेशा आदमी हैं और एक निजी फर्म में अकाउंट नट हैं."
"क्या बात करते हो रहस्यमय साहब उनके घर हमें छरा और बांग्लादेश किताबें मिली हैं. पूरा जांच के बाद ही उन्हें छोड़ सकते हैं." इन्‍सपेक्‍टर  ने साफ कह दिया.
"रहस्य भाई! मुझे यहाँ से किसी तरह ले चलो अगर मैं सवेरे तक यहां रह गया तो यहाँ मेरी जान निकल जाएगी, वहां मेरी पत्नी की. अपने मालिक का फोन नंबर देता हूँ उनसे इस सिलसिले में बात कर लीजिए." कहतेउन्होंने एक फोन नंबर दिया तो वह उसे लेकर बाहर आया और एक सार्वजनिक टेलीफोन बूथ से इस नंबर पर फोन लगाने की कोशिश करने लगा.
"हैलो!" तीन चार बार कोशिश करने पर नींद में डूबी आवाज़ उभरी.
"मलहोतरह साहब सिद्दीकी साहब आपकी ऑफिस में काम करते हैं. उनका पड़ोसी बोल रहा हूँ. उन्हें ऑपरेशन कोम्बनग के दौरान पुलिस पकड़ कर ले गई है और उन पर बांग्लादेशी, अपराधियों और देश दुश्मन होने का शक कर रही है. आप पुलिस स्टेशन फोन करके सिद्दीकी साहब के बारे में कुछ कह दें तो हमें सिद्दीकी साहब को छुड़ाने में मदद मिलेगी. "
"सिद्दीकी साहब और बांग्लादेश, अपराधियों और देश दुश्मन? ना न सनस. उन लोगों ने तो शरीफ लोगों का जीना मुश्किल कर रखा है. भई मेरे फोन से कुछ नहीं होगा. मेरा एक दोस्त गृह मंत्रालय में काम करता है. इस से फोन करवाता हूं तब ही कुछ काम बनेगा. "
"आप फोन जरूर करवाई. वरना सिद्दीकी साहब को रात भर ...!"
"तुम चिंता मत करो सिद्दीकी मुझे बहुत प्रिय है." मलहोतरह साहब ने उसकी बात काटकर कहा और फोन बंद कर दिया. वह पुलिस स्टेशन आया और सिद्दीकी साहब को तसल्ली देने लगा. कि मलहोतरह साहब गृह मंत्रालय के किसी आदमी से फोन करने हैं और पुलिस उन्हें छोड़ देगी. पुलिस स्टेशन में हाथों, गालयों और लातों से एक आदमी की बल्लेबाज परस जारी थी. समय चयून्टी गति से रेंग रहा था. अचानक टेलीफोन की घंटी बजी तो इंस्पेक्टर ने फोन उठाया.
"कोली वाड़ह पुलिस स्टेशन में इंस्पेक्टर साने. अच्छा साहब अच्छा साहब. वह बस यूं ही शक के आधार पर पूछताछ के लिए यहां लाए हैं. छोड़ रहे हैं." फोन रखकर वह क्रोध भरी दृष्टि से सामने बैठे लोगों को घूरने लगा . "सिद्दीकी कौन है?"
"मैं हूँ." सिद्दीकी साहब ने डरते डरते कहा. 'तो पहले साफ साफ क्यों नहीं बताया कि वाई कर साहब को पहचानते हो? जाओ अपने घर जाओ. "
सब जब सिद्दीकी साहब के साथ पुलिस स्टेशन से बाहर आए तो पौ फट रही थी और ऐसा लग रहा था जैसे प्रकोप  की एक रात समाप्‍त  हो गई है.
 
...
अप्रकाशित
मौलिक
------------------------समाप्‍त--------------------------------पता
एम मुबीन
303 क्‍लासिक प्‍लाजा़, तीन बत्‍ती
भिवंडी 421 302
जि ठाणे महा
मोबाईल  09322338918

Hindi Short Story Kitne Nark By M.Mubin


कहानी   कितने नरक  लेखक  एम मुबीन   


सवेरे जब वह घर से निकली थी तो बुशरा  बुखार में तप रही थी.
"अम्‍मी ! मुझे छोड़कर मत जाओ, अम्‍मी  आज स्कूल मत जाओ मुझे बहुत डर लग रहा है."
जब वह जाने की तैयारी कर रही थी तो बुशरा  की आंख भी खुल गई थी और वह उसे आज स्कूल न जाने के लिए जिद कर रही थी.
"नहीं बेटे!" प्यार से उसे समझाने के लिए जब उसने उसके माथे पर हाथ रखा तो कांप उठी. बुशरा  के माथे बुखार से तप रही थी.
"अम्‍मी  से इस तरह की ज़िद नहीं करते." यह कहते हुए उसकी भाषा लड़खड़ा गई थी. "आज अम्‍मी  का स्कूल जाना बेहद जरूरी है. कल चाहे रोक लेना. तुम कहो तो कल हम आठ दिनों के लिए स्कूल नहीं जायेंगे तुम्हारे पास ही रहेंगे. आज हमें जाने दो. "
"अम्‍मी  रुक जाओ नां! मुझे अच्छा नहीं लग रहा है." बुशरा  रोने लगी थी.
"नहीं रोते बेटे!" बुशरा  को रोता देख कर उसकी आंखों में भी आंसू आ गए थे. परंतु बड़ी मुश्किल से उसने अपने आंसुओं को रोका था और भुराई हुई आवाज़ पर काबू पाने की कोशिश की थी. "हम आज जल्दी घर आ जायेंगे फिर तुम्हारे अब्बा तो तुम्हारे पास ही हैं नां बेटा. डरने की कोई बात नहीं है. "
दूसरे कमरे में तारिक़ और ावफ बेखबर सो रहे थे. थोड़ी देर सिसककते रहने के बाद बुशरा  की भी आंख लग गई थी. उसने अपना परस कंधे पर लटका और जाकर धीरे से तारिक़ को हिलाने लगी.
"आं! क्या बात है?" तारिक़ ने आंख खोल दी.
"मैं जा रही हूँ." वह बोली. "बुशरा  को सख्त बुखार है उसे डॉक्टर के पास ले जाना. नौकरानी से कह देना कि उसका अच्छी तरह ध्यान रखे. यदि संभव हो तो आज आप छुट्टी कर लें. वैसे मैं आज जल्दी आने की कोशिश करूंगी परंतु कह नहीं सकती कि यह संभव हो सकेगा भी या नहीं क्योंकि आज इन्‍सपेकशन  है. यदि इन्‍सपेकशन  न होता तो आज जाती ही नहीं. "
"ठीक है." तारिक़ ने उठते हुए जमाही ली. वह जब घर से बाहर आई तो चारों ओर गहरा अंधेरा था. सर्दियों के दिनों में सात भी बज जाते हैं तो अंधेरा ही छाया रहता है दिन नहीं निकलता और उस समय तो केवल साढ़े पांच ही बजे थे. पूरी गली सुनसान थी. रास्ते पर इक्का दुक्का लोग आ जा रहे थे. ऐसे आलम में किसी औरत के घर से निकलने की कल्पना भी नहीं किया जा सकता है. वह प्रतिदिन उसी समय अकेली उस गली से गुज़र कर रिक्शा स्टैंड तक जाती जो लोग सवेरे जल्दी जागने के आदी थे. उन्हें पता था कि वह उस समय घर से स्कूल जाने के लिए निकलती है. ननवा लोग उससे दो बातें कर लिया करते थे.
"बेटी स्कूल जा रही हो."
"हाँ बाबा." वह उत्तर देती.
"भाबी अकेली अँधेरे में प्रतिदिन  इतने सवेरे जाती हो तुम्हें डर नहीं लगता?"
"अब तो आदत हो गई है." वह मुस्कुरा कर कहती.
सभी ननवा और अच्छे नहीं होते. कभी कभी कोई अजनबी और बदमाश भी मिल जाता है. अकेले में उस समय किसी अजनबी औरत को देख कर वह जो कुछ कर सकता है वह करने से नहीं चौकता था. कभी कोई भद्दा सा वाक्यांश मुंह से निकाल देता . कभी कोई नागवार बात कह देता. कोई तो जसारत कर धक्का देकर आगे बढ़ जाता और अपनी किसी मानसिक  इच्छा की संतोष कर लेता. ऐसी स्थिति में इस प्रक्रिया सिवाय ख़ामोशी और कुछ नहीं होता था. न तो वह से उलझ सकती थी न शोर मचा कर अपनी मदद के लिए किसी को बुला सकती थी. उलझी तो नुकसान उसी का होता. अकेली औरत जो ठहरे. किसी को मदद के लिए बुलाती तो संभव नहीं था कि कोई उसकी मदद को आता. इतने सवेरे कोई अपनी लाखों रुपए की मीठी नींद खराब करता है? अगर कोई आए भी तो बदमाश से तो उसे मुक्ति मिल जाती परंतु मदद करने के वाक्यों से शायद जीवन भर मुक्ति  नहीं मिलती.
"इतनी रात गए अकेली घर से निकली हो. शरीफ़ औरतों के क्या यही चाल चलन हैं?"
"यदि इज़्ज़त का उतना ही पास है तो अकेली इतने सवेरे घर से क्यों निकलती है. घर में रहा करो. छोड़ दो यह नौकरी." गरज वह ऐसी बातों से कतरा के लिए अपने साथ हुए जा रहे बे जा व्यवहार को अनदेखा कर आगे बढ़ जाती थी. रिक्शा स्टैंड से एस टी के लिए उसे पाँच मिनट में रिक्शा मिल जाता था. कभी कभी तो उसे रिक्शा तैयार मिल जाता था कभी दो चार मिनट रिक्शा का इंतजार करना पड़ता था. कुछ रिक्शा वालों को पता था वह उस समय वहां से एस. टी स्टैंड जाने के लिए निकलती है तो वह उसके इंतजार में वहाँ पहुँच जाते थे. इसमें भी उन लोगों की नियत के दो पहलू होते थे. कुछ शरीफ लोग अपनी रोज़ी धंधे के लिए की सीट पाने के लिएवहाँ पहुँचते थे. कुछ बदमाश मानसिकता वाले केवल स्वाद के लिए वहाँ पहुँचते थे कि एक अकेली अकेले खूबसूरत जवान लड़की को अकेले रिक्शा में एस. टी स्टैंड तक पहुँचाने का अवसर मिलेगा. उससे कुछ ऐसी भी बातें हो सकती हैं जो उनके लिए मानसिक  स्वाद का कारण हूँ. ऐसी हालत में वह ख़ामोश रहकर यात्रा को प्राथमिकता देती थी.
उनका कोई उत्‍तर  नहीं देती थी या यदि देती भी तो ऐसा उत्‍तर  देती कि उसकी सारी उम्मीदों और इरादों पर पानी फिर जाए. ऐसी स्थिति में जो दुर्घटना संभव था वह एक बार इसके साथ हो चुका था. सन्नाटे और अंधेरे का लाभ उठाकर एक रिक्शा वाले ने उसे गलत रास्ते पर ले जाना चाहा. उसने चीख कर उसे रोका जब उसने नहीं सुना तो चलते रिक्शे से कूद गई. उसे मामूली चोटें आईं परंतु उसकी सौभाग्य था कि सामने पुलिस खड़ी थी और उसे रिक्शा से कूदती देखा तो दौड़कर उसके पास पहुंचे.
"क्या बात है मैडम, क्या आप रिक्शा से गिर गईं?"
"नहीं! वह रिक्शा वाला मुझे अकेली देख कर गलत रास्ते पर ले जा रहा था."
"ऐसी बात है?" यह सुनते ही दो पुलिस वाले गाड़ी लेकर भागे. थोड़ी देर बाद ही वह रिक्शा को मारते हुए उसके पास ले आए उन्होंने शायद उसे बुरी तरह मारा था. उसके माथे से खून बह रहा था .
"बहन जी मुझे क्षमा कर दो! अब जीवन भर ऐसी गलती नहीं करूंगा." वह उसके पैरों पर गिर कर गिड़गिड़ाते लगा तो उसने पुलिस वालों से कहा कि उसके विरूध  कोई कार्रवाई न करे उसे छोड़ दे. इस घटना को तो उसने अपने तक ही सीमित रखा था परंतु रिक्शा वालों में शायद इस घटना का प्रचार हो गई थी क्योंकि उसके बाद उसके साथ ऐसा कोई घटना पेश नहीं आया था.
इस घटना से वह स्‍वंय  बहुत डर गई थी. उसने सोचा था कि वह अपना रूपांतरण दोपहर की नलं में करा ले जाएगा. इसके लिए उसने काफी हाथ पैर भी मारे थे. परंतु बात नहीं बन सकी थी. रूपांतरण करने वाले इतनी कीमत मांग रहे थे जितनी देना उसकी बिसात के बाहर था. वैसे दोपहर की नलं उसके और उसके घर वालों के पक्ष में भी उचित नहीं थी. दोपहर की नलं करने के लिए उसे सवेरे नौ दो बजे घर से निकलना होगा और वापसी शाम सात आठ दस बजे तक संभव ही नहीं हो सकेगी. ऐसी स्थिति में घर, ावफ और बुशरा  का कौन ध्यान रखेगा. तारिक़ ड्यूटी देखेगा या घर और बच्चों को?
इसलिए उसने दूसरी नलं लेने का इरादा बदल दिया था. सवेरे की नलं के लिए उसे साढ़े पांच बजे के समीप  घर से निकलना पड़ता था. इस तरह से वह ठीक वक्त पर स्कूल पहुंच भी जाती थी. स्कूल से दो ढाई बजे के समीप  वापस घर आ जाती थी. तारिक़ दस ग्यारह बजे तक घर में ही रहता था उसके बाद नौकरानी आ जाती उसके आने तक नौकरानी घर और बच्चे संभाली थी. साढ़े पांच बजे घर छोड़ने के लिए उसे चार बजे जागने पड़ता था. जागने के वह अपने और बच्चों के लिए सवेरे का नाश्ता और कभी कभी दोपहर का खाना बनाती थी हाँ! कभी देर हो जाती तो यह जिम्मेदारी नौकरानी पर डालनी पड़ती. सारे काम करके वह ठीक वक्त पर घर से निकल जाती थी. निकलते समय वह हल्का सा नाश्ता कर लेती थी परंतु स्कूल में उसे भूख लग ही जाती थी. अवकाश में उसे हल्का नाश्ता करना ज़रूरी हो जाता था. इसके बाद वह घर आकर ही खाना खाती थी.
बस स्टैंड पहुंचने के बाद उसे पुणे छह बजे बस मिल जाती थी. यह बस भी समझमह थी. कभी बिल्कुल खाली होती थी तो कभी इतनी भीड़ कि पैर रखने के लिए भी मुश्किल से जगह मिलती थी. बस खाली हो या भीड़ उसे उसी से यात्रा करना आवश्यक होता था. अगर वह बस छूट जाए तो निश्चित समय पर स्कूल लगना ना मुमकिन था. क्योंकि 20 किलोमीटर का पल सरा् सा यात्रा उसी बस द्वारा निर्धारित समय में तय करना संभव था. वरना भिवंडी थाना यात्रा? भगवान की शरण. भिवंडी से निकले लोग नासिक पहुँच जाये परंतु थाना जाने के लिए निकले रास्ते में ही फंसे रहे. खराब रास्ता, आवागमन, यात्रियों, बस कंडकटर, चालक के झगड़े. सुबह के समय आवागमन कम होती थी भीड़ कम होने की वजह से कंडकटर का मूड भी अच्छा होता था. इसलिए यह यात्रा निश्चित समय में पूरा हो जाता था. इसके बाद थाने से आधे घंटे का लोकल ट्रेन यात्रा. उसमें बहुत कम परेशानी होती थी. दो चार मिनट में कोई तेज या धीमी लोकल मिल जाती थी. सवेरे का समय होने के कारण लोकल में भीड़ नहीं होती थी. कभी सामान्य डिब्बे में जगह मिल जाती थी तो कभी लीडीज़ डिब्बे में. हाँ! किसी मजबूरी के तहत भीड़ होने की वजह से खड़े होकर यात्रा करना भी भारी नहीं पड़ता था.
लीडीज़ डिब्बे में खड़े होकर यात्रा करने में तो कोई समस्या पेश नहीं आती थी परंतु जनरल डिब्बे में खड़े होकर यात्रा करना औरत के लिए प्रकोप  से कम नहीं है. धक्के शरीर की हड्डी पसलियां एक कर देते हैं. और एक औरत को तो कुछ अधिक ही धक्के लगते हैं और विशेष रूप से नाजुक स्थानों पर. ऐसा लगता है जैसे कई गध अपनी नवकीली चौनचों से उसका मांस नोच रहे हैं. कभी राहत भरा आराम तो कभी प्रकोप  भरा यह सफर तय करने के बाद कुछ क़दमों का पैदल यात्रा और उसके बाद स्कूल. कैसी अजीब बात थी.
तीस चालीस किलोमीटर से आती थी. परंतु कभी कभी वे सबसे पहले स्कूल आने वाली एकमात्र शिक्षक होती थी. या पहले नहीं भी आती थी तो लेट कभी नहीं होती थी. मगर स्थानीय शिक्षक हमेशा देर से आते थे. इसके बाअस्तित्‍व  अगर किसी दिन मजबूरी से एक आध घंटा देर से स्कूल पहुँचती तो लोग नाक भौं चढ़ाने. और देरी से आने के लिए उसे उत्‍तर  देना पड़ता था या उसकी उपस्थिति में लेट मार्क किया जाता था. वह उसके विरोध भी करती तो उसका विरोध बेअसर रहता. क्योंकि स्कूल में कोई लॉबी नहीं था. लॉबी न होने की वजह से उसके विरोध में न तो शक्ति थी और न प्रभाव. जिनकी लॉबी मजबूत थी वह सारे कानून को ताक पर रखकर नौकरी करते थे.
स्कूल से वह साढ़े बारह बजे के समीप  निकलती थी. थोड़ी दूर पैदल चलने के बाद रेलवे स्टेशन और स्थानीय से थाना. और थाना आने के बाद भिवंडी  तक पीड़ा नअक यात्रा.
जब भी वह थाना भिवंडी  के बीच यात्रा करती थी उसे सरा् मसतकीम की याद आती थी. दिन महशर के बाद बन्दों को जिस बाल से बारीक पुल से यात्रा करना होगा जिसके नीचे नरक की आग महक रही होगी. वह यात्रा कितना यातना नाक होगा इसका तो माना जा सकता था. परंतु इस यात्रा को तय करते हुए जो यातना सहन  करनी पड़ती थी उसकी कोई सीमा नहीं थी.
पहले बस की लाइन में घंटों खड़े रहना धक्के खाना. प्रकार के लोगों की नापाक नजरों का निशाना बनना. फिर दानसतगी या नादानसतगी से लगाए उनके हवस नाक धक्कों को अपने शरीर पर झेलना. बस आई और जगह मिल गई तो गनीमत वरना फिर भीड़ में खड़े खड़े यात्रा. भीड़ में घुटता दम और शरीर का निकलता कचूमर. इस यात्रा में यात्रा करने वाले यात्री भी कितने बे हस होते हैं.
कोई खड़ा है इससे उन्हें कुछ लेना देना नहीं होता है. उन्हें जगह मिल गई उनके लिए बस यही काफी है. कोई भूल कर भी यह नहीं सोचे कि कोई औरत खड़ी है. उसे बैठने के लिए जगह देनी चाहिए. अगर कोई इतनी फ़्रापदिली करेगा तो फिर उस फ़्रापदिली मूल्य भी प्राप्त करने की कोशिश करेगा. उस फ़्रापदिली की यातना नाक भुगतान करने से बेहतर तो है धक्के सहते हुए शरीर के बीच घट कर खड़े खड़े यात्रा करें. महिला थकी हुई है, गर्भवती या बीमार है कोई इस बारे में नहीं सोचता. उसकी इन स्थितियों पर दया खा कर कोई उसे जगह देने की कोशिश नहीं करता. यदि जगह देता है तो उससे मूल्य प्राप्त करने की नियत है. चाहे वह किसी भी हालत में हो . फिर ऐसी हालत में यह यात्रा और लंबी हो जाता है.
किसी दिन कोई एक्सटेंडिड हो गया जिसकी वजह से यातायात जाम हो गई और फिर सामान्य आने में घंटों लग गए और एक आधे घंटे की यात्रा दो तीन घंटे शामिल हो गया. घटना नहीं भी हुआ तो बेतरतीब से घुसने वाले वाहनों के कारण से यातायात जाम हो गई.
मामूली मामूली बातें कभी बड़ी बड़ी वजह बन कर कई घंटे बरबाद कर देती हैं. जब वह घर पहुँचती है तो भूख चमकी हुई है. सारा शरीर थकान से टूट रहा है आंखों में नींद समाई होती है. उसे कुछ वझाई नहीं देता है वह क्या करे खाना खाये, आराम करे या सोए उसके आते ही बच्चे उसे घेर लेते हैं वह उससे लिपट कर इतनी देर की दूरी के एहसास को कम करना चाहते हैं. और थकान की वजह से बच्चों के शरीर की निकटता भी उसे बिजली का तार महसूस होती है. बड़ी मुश्किल से पलंग पर लेट कर थोड़ी देर सस्ता कर फिर अपने कामों में लग जाती है. यदि नौकरानी ने खाना नहीं बनाया तो उसे खाना बनाना पड़ता है. इस बीच तारिक़ भी आ जाता है और फिर सब मिल कर खाना खाने बैठ जाते हैं. कभी वह जल्दी आ गई तो सब साथ ही खाना खा लेते हैं. कभी देर हो गई तो निर्धारित समय पर तारिक़ और बच्चे खाना खा लेते हैं. उसे अकेले ही खाना पड़ता है. खाना खाने के बाद एक दो घंटे की नींद का सामान्य है. एक दो घंटे सोने के बाद उसकी सारी थकान दूर हो जाती है. और तरोताज़ा होकर घर के कामों में लग जाती है.
घर के छोटे मोटे काम करना, रात का खाना बनाना, शाम बाज़ार जाकर शॉपिंग करना आदि आदि. परंतु जरूरी नहीं कि प्रतिदिन  जीवन का यह सामान्य है. कभी कभी सामान्य में मामूली बदलाव भी बड़ी यातना नाक साबित होती है. आज बुशरा  को सख्त बुखार आ गया. शाम से ही उसे हल्का हल्का बुखार था. आधी रात के बाद बुखार की तीव्रता बढ़ गई और अब वह तप रही है. उसका स्कूल जाना भी ज़रूरी है. इन्‍सपेकशन  जो है. एक महीने अगर वह स्कूल न तो चल सकता है परंतु इन्‍सपेकशन  के दिन न जाए यह कैसे संभव है?
एक मुहावरा है उस दिन तो बिस्तर मरग से उठ कर भी स्कूल आना जरूरी है. वह कई सालों से कोशिश कर रही है कि उसे भिवंडी का कोई टीचर मिल जाए जो उसके साथ मयूचौल ले. और प्रतिदिन  इस पल सरा् यात्रा से मुक्ति  मिल जाए. चाहे उसमें उसे वेतन में नुकसान सहना पड़े. परंतु आज तक यह संभव नहीं हो सका है. उस तरह कई शिक्षक मुंबई पढ़ाने जाते हैं. और मुंबई से शिक्षक पढ़ाने के लिए भिवंडी  आते हैं.
सब समस्याओं एक हैं. परंतु कोई भी उसे ऐसा हम विचार नहीं मिलता जो यातना से दोनों को उद्धार. घर बाल बच्चे पति भिवंडी  हैं नौकरी के लिए मुंबई जाना पड़ता है. जब तक विवाह  नहीं हुई थी कोई समस्या नहीं था यहयात्रा किसी तकलीफ का कारण नहीं था. हर दिन एक नया अनुभव और एक नया ाीडोनचर होता था. विवाह  के बाद भी कोई समस्या नहीं पैदा हुआ. केवल जल्दी घर पहुँच कर पति को देखने की इच्छा मन में ाँगड़ाईाँ लेती रहती थी. परंतु के बाद बच्चे आ गए और समस्याओं बढ़ते गए.
घर में कोई नहीं था जिनके भरोसे बच्चों को छोड़ कर संतुष्ट हो कर ड्यूटी पर जा सके. सब कुछ नौकरों के सहारे और उनके भरोसे करना पड़ता था पता नहीं नौकर बच्चों का अच्छी तरह ध्यान रखते भी होंगे या नहीं. बस यही प्रशन   हर क्षण मन को कचौकता रहता था. कई बार तो मन में आया नौकरी छोड़ दे. मियाँ बीवी में सलाह भी हुआ परंतु यह तय भावनात्मक फैसला साबित हुआ. जब सामने सच्चाई की प्रवेश दीवारें आईं तो यह फैसला उससे टकरा कर पाश पाश हो गया . अभी अभी नया घर लिया था.
तारिक़ की आधी से अधिक वेतन फ्लैट के लिए ऋण के सप्ताह भुगतान में खर्च हो जाती थी. अल्प आय के सहारे भिवंडी  जैसे महँगे शहर में जिंदा रहना भी हर चीज़ के लिए तरस तरस कर दिन मरना था. इसलिए नौकरी भी आवश्यक थी. और नौकरी के लिए प्रतिदिन  यातना यात्रा भी जरूरी था. बच्चे बुखार में तप रहे थे परंतु फिर भी स्कूल जाना जरूरी. घर पहुंचने की जल्दी परंतु ऐसे हालात पैदा हो गए कि सामान्य से दो चार घंटे लेट लगना पड़े.
प्रतिदिन  समय पर स्कूल जाना हो जाता था. एकाध बार बस या ट्रेन देर से चलने के कारण स्कूल पहुंचने में देरी हो गई और उसी दिन किसी अधिकारी ने स्कूल का दौरा किया. और हाथ में देरी से स्कूल आने का मीमो आ गया. रक्षा में बैठी तो कोई बुशरा  की बीमारी के साथ इन्‍सपेकशन  होने की वजह से जल्दी या समय पर स्कूल पहुंचने का विचार था. समय पर बस भी मिल गई और बैठने के लिए जगह. परंतु रास्ते में बस ड्राइवर एक ट्रक वाले से उलझ गया . उनके झगड़े में पंद्रह मिनट देर हो गई. थाने स्टेशन पर आई तो तेज लोकल निकल चुकी थी. धीमी ट्रेन दस मिनट देर से आई. स्कूल पहुंची तो पूरे आधे घंटे देरी हो गई थी.
शिक्षा अधिकारी आ चुका था और इन्‍सपेकशन  शुरू हो चुका था. "श्रीमती मोमिन! आपको शर्म आनी चाहिए. आप आधा घंटा लेट स्कूल आई हैं. उससे तो यही लगता है आप इन्‍सपेकशन  के दिन लेट आई हैं तो प्रतिदिन  तो कई घंटे लेट आती हूंगी. आप इस तरह लेट स्कूल आकर बच्चों का कितना नुकसान कर रही हैं आपको एहसास है? सरकार आपको वेतन क्यों देता है? "अधिकारी का लेक्चर सुनना पड़ा था. और अपनी विवश्‍ता  पर उसकी आंखों में आंसू आ गए. वह क्या उत्‍तर  दे उस की कुछ समझ में नहीं आ रहा था. दिन भर इन्‍सपेकशन  चलता रहा परंतु इसका कोई बुशरा  में उलझा रहा. पता नहीं कैसी होगी? बारह बजे के समीप  एक ननवा ने आकर खबर दी कि भिवंडी  से तारिक़ का फोन आया है कह रहे हैं कि तुम तुरंत आ जाओ बुशरा  की तबीयत बहुत खराब है.
उसने तारिक़ को ननवा संख्या दे रखा था ताकि यदि उसे कोई ज़रूरी संदेश देना हो तो वहां संपर्क करे. वे भी उसे तुरंत सूचित कर देते थे. वह तुरंत स्कूल से निकल गई. स्टेशन आकर लोकल में बैठी और स्थानीय चल दी. परंतु थोड़ी दूर जाकर रुक गई.
किसी नेता पर हमला हुआ था. उसके विरोध कर लोगों ने ट्रेन सेवा बंद कर दी थी विरोध करने वालों को पुलिस को पटरियों से हटाने में दो घंटे लग गए उसके बाद ट्रेन चली. थाने से स्पेशल रिक्शा कर वह घर आई तो पता चला बुशरा  को अस्पताल में भर्ती कराया गया. अस्पताल में पलंग पे बुशरा  बेहोश लेटी थी उसके हाथ में सरनज लगी हुई थी उससे कतरा कतरा दवाई टपक कर नली द्वारा उसके शरीर में जा रही थी.
"बुखार बहुत बढ़ गया था इसलिए ऐडमट करना पड़ा." तारिक़ ने बताया तो वह अचानक फूट फूट कर रोने लगी. यह सोचकर कि मरने के बाद तो इंसान केवल एक पल सरा् से गुजरना होगा. परंतु जीते जी इसे कितने पल सरा् से गुजरना पड़ता है?

 
...
अप्रकाशित
मौलिक
------------------------समाप्‍त--------------------------------पता
एम मुबीन
303 क्‍लासिक प्‍लाजा़, तीन बत्‍ती
भिवंडी 421 302
जि ठाणे महा
मोबाईल  09322338918